Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 55

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN: 2454-2725
इलाके से छोटी-मोटी छप्पन नमदयों ने खु ा़द को मही में मवलीन कर मदया है ।
इस मैदान की कटी-फटी प्राकृ मतक संरचना से साक्षात्कार करते हुए मैं अपने अगले पडाव ा़ " बेिेश्वर धाम " पहुँचता हूँ जहाँ दो बड़ी नमदयों ' सोम ' और ' जाखम ' का मही से संगम होता है । इस मत्रवेिी संगम पर मही का दो धाराओं में बंटकर पुनःएक होना अप्रमतम सौन्दया की सृमसे करता है । यह एक मसद्ध स्थल है और हर वर्षा माघ पूमिामा पर यहाँ मवशाल जन समागम होता है । आमदवामसयों की बहुलता के कारि इसे आमदवामसयों का कु ं भ भी कहते है । अब यहाँ मवदेशी पयाटक भी पहुँचने लगे हैं ।
यहाँ मही यू-टना लेकर दमक्षिवामहनी हो जाती है । यहीं दो रामत्र मबताने के पिात मेरा अगला पडाव
ा़ प्रमसद्ध प्राचीन मंमदर देव सोमनाथ था । यह दमक्षि राजस्थान का एक प्रमुख तीथा है । मही अब डूंगरपुर और बांसवाड़ा मजले की सीमा बनाती हुई गुजरात में प्रवेश कर सागर संगम की ओर अपने कदम बढाने
ा़
लगती है ।
इसी के पमिमी मकनारे पर मस्थत गमलयाकोट कस्बा बोहरा समुदाय की मवश्वमवख्यात ममस्जद के मलए जाना जाता है । राजस्थान के सुदूर दमक्षि में बसा यह कस्बा देश-मवदेश के श्रद्धालुओं की आस्था का के न्द्र है । मही के साथ अपनी यात्रा का छठा पडाव ा़ मैने यहीं मकया और वर्षों पूवा मही की बाढ़ में शहर के ममटने और पुनःबसने की रोमांमचत कर देने वाली दास्तानों और ऐमतहामसक कथाओं से रूबरू हुआ ।
यहाँ से कु छ ही मील की दूरी पर नदी पर गुजरात सरकार ने कडािा डेम का मनम ाि मकया है । माही की इससे आगे की यात्रा पूवी गुजरात के मवकास और समृमद्ध की यात्रा है । मही के साथ जैसे-जैसे मैं आगे की ओर बढ़ता जाता हूँ, उसकी गहन गंभीरता तो सामने
आती ही है लेमकन उसमें मस्थत छोटे-बडेा़ टापू उसकी चंचलता को भी मनखारते है । इसी कारि मही " द्वीपों की नदी " भी कहलाती है । लुनावडा ा़गांव के मनकट " पानम " और " वेरी " नमदयाँ मही में ममलती है और एक और मत्रवेिी संगम का दशान लाभ ममलता है । काकमचया आश्रम और कलेश्वरी माता का अत्यंत पमवत्र और दशानीय तीथाक्षेत्र है यह । यहीं अपने सातवे मुकाम के पिात मैं आगे बढ़ता हूँ ।
मही के सागर ममलन की वेला अब नजदीक आती जा रही है । गुजरात के दो बडेा़ शहरों बडोदरा
ा़ और आिंद के मध्य से गुजरते हुए मही के अमृत जल
से हुए मवकास को देखकर आखें चौंमघया जाती है ।
मही के सागर में समामहत होने के पूवा उसके पूवी तट पर वासद गांव के समीप महीसागर नामक एक अत्यंत पमवत्रतम तीथाक्षेत्र है । यहाँ मही माता की लगभग सत्रह फीट ऊं ची प्रमतमा स्थामपत की गई है । शतायु संत श्री बुद्धेश्वर जी का आश्रम यहाँ भमक्त रस से सराबोर कर देता है । संत श्री को मही नदी से गहरा लगाव था । यहीं उनकी जल समामध भी हुई थी । अपनी यात्रा के अंमतम और नवें पडाव ा़ पर पहुंचकर मही को सागर में समाते देखने के पूवा मैंने अपना मुकाम यहीं बनाया । मही का अंमतम छोर दुगाम और बेमहसाब गहराई मलये हुए है । अपनी संपूिा यात्रा में मही पमवत्र गंगा और रेवा की ही तरह देवी के स्वरूप में पुजी गई है । पूरे समय वन प्रांतर में बहने के कारि इसे " वन देवी " भी कहा गया है । उद्भव से संगम तक इसका कि-कि पमवत्र कर देने वाला है । इसके तट पर बसे तीथाक्षेत्र के अनुभव मदव्य और अद्भुत है । मही की यात्रा एक पूरे जीवन की यात्रा है । आप भी समय मनकालकर मही की महत्ता, उसके अमद्वतीय सौन्दया को मनकट से अवश्यमेव महसूस करे ।
( लेखक एिं अनुिादक) १४, सतलक सिहार, जािरा
Vol. 3, issue 27-29, July-September 2017. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017