Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका
मदन के बाद उतरती है रात
रात के बाद चढ़ते हैं मदन
साँप छोड़ जाते हैं अपने के च ए ु
रसास्वादन कर भँवर
छोड़ जाते हैं उदास फूल०
इि कसिन िमय में!
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इस कमठन समय म
जब यहाँ समाज के शब्दकोश स
मवश्वास, ररश्ते , संव द े नाए
और प्रेम नाम के तमाम शब्दों को
ममटा मदये जाने की म म ु हम जोरों पर है०
त म् ु हारे प्रमत
मैं बड़े संद ह े की मस्थमत में हू
मक आमखर त म ु अपनी हर बात
अपना हर पक्ष
मेरे सामने इतनी सरलता
और सहजता के साथ कै से रखती हो
हर ररश्ते को मनश्छलता के साथ जीती
इतनी स व ं द े नाएँ कहाँ से लाती हो त म ु ०
बार-बार उठता है यह प्रश्न मन म
क्या त म् ु हारे जैसे और भी लोग
अब भी शेर्ष हैं इस द म ु नया म
देखकर त म् ु ह
थोड़ा आशामन्वत होता हू ० ँ
मखलाफ मौसम के बावज द ू
त म् ु हारे प्रेम म
कभी उदास नहीं होता हू ० ँ
िगी जाती हो तुम!
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पहले वे परखते ह
Vol. 3 , issue 27-29, July-September 2017.
ISSN: 2454-2725
त म् ु हारे भोलेपन को
तौलते हैं त म् ु हारी अल्हड़ता
नाँपते हैं त म् ु हारे भीतर
संव द े नाओ ं की गहराई०
मफर रचते हैं प्रेम का ढ़ोंग
फें कते है पाशा सामजश का
मदखाते हैं त म् ु ह
आसमानी स न ु हरे सपने०
जबतक तुम जान पाती हो
उनका सच
उनकी सामजश
वहशी नीयत के बारे म
वे त म् ु हारी इजाजत स
टटोलते हुए
त म् ु हारे वक्षों की उभार
रौंद च क
े होते ह
त म् ु हारी देह०
उतार च क
े होतें ह
अपने मजस्म की गमी
अपने यौवन का ख म ु ार
ममटा च क
े होतें ह
अपने ग प्त ु ांगों की भ ख
०
और इस प्रकार त म ु
हर बार ठगी जाती हो
अपने ही समाज म
अपनी ही संस्कृ मत म
अपने ही प्रेम म
अपने ही जैस
तमाम शक्लों के बीच०
- पररतोष कुमार 'पीयूष '
7870786842, 7310941575
वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017