Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN: 2454-2725
सारांश
रामिृक्ष बेनीपुरी की रचनाओं में भारतीय िंस्कृ सत की झलक
सििेक कु मार, vivekmadhuban @ gmail. com शोधाथी, मवश्वमवद्यालय महंदी मवभाग,
मत. मां. भागलपुर मवश्वमवद्यालय, भागलपुर
मकसी भी समाज की संस्कृ मत, उस समाज का जीवन, प्राि और आत्मा होती है । हर देश की अपनी संस्कृ मत होती है । हमारे देश की मवमशसे संस्कृ मत हमारी सांस्कृ मतक धरोहर हैं और हमारा यही वैमशसे्य हमें अन्य देशों से मवलग करता है । बेनीपुरी जी की भारतीय संस्कृ मत के अनन्य उपासक थे । उनकी रचनाओं में यत्र-तत्र हमारे देश की सांस्कृ मतक वैमशसे्य की झलक स्पसे मदखाई देती है । बेनीपुरी जी की कई रचनाओंयथा, तोरी फु लाइल: होरी आइल में होली का, दीप दान में दीवाली का, रूपा की आजी में मशवरामत्र के मेले का, मेरी माँ में भारतीय समाज की रूमढ़वादी परंपराओं का, मासानां मागाशीर्षोंहम में अगहन महीने का, रोपनी में खेती के ्टश्य और लोकगीतों का विान ममल जाता है । बेनीपुरी जी भारतीय समाज के सांस्कृ मतक क्षरि से बहुत आहत थे मजसका विान उन्होंने गेहूँ बनाम गुलाब में मकया है ।‘ गेहूँ और गुलाब’ के माध्यम से उन्होंने बताया मक‘ गेहूँ’ है- मानव के भौमतक मवकास का प्रतीक तथा‘ गुलाब’ है हमारी संस्कृ मत और सांस्कृ मतक मवकास का प्रतीक । मनुष्ट्य के जीवन में‘ गेहूँ’ और‘ गुलाब’ दोनों में सम्यक संतुलन अत्यंत आवश्यक है । भौमतक जगत के आकर्षाि पाश में फँ सकर मानव‘ गेहूँ’ के पीछे रथ में जुते घोड़े की तरह सरपट दौड़ने लगा, पररिामस्वरूप,‘ गुलाब’ अथाात हमारे सांस्कृ मतक गुि- क्षमा, दया, तप, त्याग, दान, अमहंसा, सत्याग्रह, परोपकार, वसुधैव कु टुम्बकम की भावना का लोप हो
गया । पुरानी संस्कृ मत की जमीं पर वे सांस्कृ मतक पुनमनामााि का काया करना चाहते थे और सभी सामहत्यकारों को भारतीय संस्कृ मत के संरक्षि के मलए आह्वान करते थे । इसमलए स्वतंत्रता संघर्षा के पिात ही अपनी लेखनी के माध्यम से उन्होंने सांस्कृ मतक पुनजाागरि को मुख्य मुद्दा बनाया । अपनी रचनाओंमें भारतीय संस्कृ मत को शाममल कर तथा उन पर गहन मचंतन कर भर ही नहीं करते थे बमल्क, इसे उन्होंने अपने आचरि में शाममल भी मकया । यही कारि है मक सामहमत्यक क्षेत्र में संस्कृ मत दूत के रूप में उनकी अपनी एक मवमशसे पहचान है ।
की िडडकि
बेनीपुरी, संस्कृ मत, रोपनी, मासानां मागाशीर्षोंहम, मेरी माँ, कील, गेहूँ, गुलाब, चुड़ैल
िोधपि
संस्कृ मत वह है जो हमारे युगों से संमचत मवचारों, आदशों और व्यवहारों को स्वंय में समामहत कर, कालानुसार नवीनता प्रदान करते हुए, स्वतः प्रत्येक आने वाली पीढ़ी में प्रवेश कर जाती है । संस्कृ मत समाज का जीवन, प्राि और आत्मा होती है । मजस तरह शरीर की बाह्य गमतमवमधयों के माध्यम से उसके आंतररक प्रािों की अमभव्यमक्त होती है, उसी तरह समाज की मवमभन्न गमतमवमधयों यथा, सामामजक परंपराएँ, रीमत ररवाज, सामामजक अंतस्संबंध तथा दैनंमदन जीवन की गमतमवमधयाँ, अध्यात्म, धमा, कला इत्यामद के माध्यम से उस समाज की संस्कृ मत का बोध होता है । हर देश की अपनी संस्कृ मत होती है जो उस देश में रहने वाले लोगों के जीवन के हरेक अंग में ्टमसेगत होती है । हमारे देश की परम्पराएँ, नृत्य, संगीत, धमा, कला, मशल्प, भार्षा, पवा-त्यौहार, रीमत-ररवाज, खान-पान इत्यामद हमारी सांस्कृ मतक धरोहर हैं और
Vol. 3, issue 27-29, July-September 2017. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017