Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका
ISSN: 2454-2725
हनन करने वाली भ्रसे व्यवस्था को लेखक न मह स ं क कायों की लीलाभ म ू म बन गई है, जहाँ साध्य
‘नागपवा’ उपन्यास में रे खांमकत करने की कोमशश की महत्त्वप ि ू ा है, साधन भले कोई भी हो । ‘राग दरबारी’
है ।” 3 उपन्यास के एक पात्र रुप्पन के शब्दों में- “देखो दादा,
स्वातंत्र्योत्तर भारत में च न ु ाव के हलचल क
यह तो पोलमटक्स है । इसमें बड़ा- बड़ा कमीनापन
साथ ही राष्ट्रीय जीवन में एक नया अध्याय प्रारम्भ चलता है. ... द श् ु मन को जैसे भी हो, मचत्त करना
हुआ । मजन नेताओ ं ने त्याग, बमलदान, तपस्या स चामहए ।” 5 इसी राजनीमत की दा व ं पेंच को एक अन्य
स्वत त्र ं ता प्राप्त की थी, स्वत त्र ं ता पिात् उनमें से कुछ
उपेमक्षत हुए और कुछ ऐसे लोग स्वयं ही नेता बन बैठे
मजन्होंने स्वतंत्रता प्रामप्त के मलए कोई त्याग नहीं मकया
था । फलतः राष्ट्र नैमतक ्टमसे से उन्नमत के स्थान पर
अवनमत ही करने लगा । ‘मकस