Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN: 2454-2725
का विान हुआ है । इस ग्रंथ में लेखक ने विानात्मक और पररगिनात्मक शैली का प्रयोग मकया है । इस ग्रंथ का कु छ अंश शुद्ध विानात्मक है, जैसे- प्रभात-विान, ऋतु-विान आमद; कु छ अंश विानात्मक और पररगिनात्मक दोनों है, यथा- नृत्यविान; कु छ अंश के वल पररगिनात्मक है, यथा- 64 कला, 12 आमदत्य आमद । अत: इसे एक प्रकार की शैली प्रधान ग्रन्थ की मवमशसे श्रेिी में रख पाना संभव नही है ।
इस ग्रन्थ की रचना लेखक ने मकस उद्देश्य से की थी? इस मवर्षय पर मवद्वानों में पयााप्त मतान्तर है । विारत्नाकर के प्रथम अवलोकक महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार, इसमें कमव पररपाटी का प्रमतपादन मकया गया है । जबमक विारत्नाकर के प्रथम संपादक डा. सुनीमत कु मार चटजी के अनुसार यह लौमकक और संस्कृ त शब्दों का कोश है, मजसमें काव्य विान के मवमवध वस्तु भाव के साथ सभी के उपमा, उपमान और विान पररपाटी का संग्रह है । विारत्नाकर के संपादक और व्याख्याकार प्रो. आनंद ममश्र और श्री गोमवन्द झा, इनके विान शैली के आधार पर, अपना मंतव्य प्रकट करते हुए कहते हैं मक विारत्नाकर का नामकरि यमद विान रत्नाकर रखा जाए तो कोई अमतशयोमक्त नही होगी, क्योंमक इसमें विान की प्रधानता है ।
इस ग्रन्थ की रचना लेखक ने मजस मकसी उद्देश्य से भी की हो, इतना तो अवश्य कहा जा सकता है मक प्रमसद्ध मैमथल मवद्वान ज्योमतरीश्वर ठाकु र ने पद- रचना की परंपरागत शैली धारा को अमवमछन्न कर गद्य परंपरा की एक नवीन पररपाटी का श्रीगिेश मकया, जो परवती सामहत्य के मलए गद्य के नवीन शैली का सबल आधार बना । विारत्नाकर की भार्षा शैली को पढ़कर ऐसा अनुभूत होता है मक यह संक्रमि काल की पररवतानशील भार्षा है, मजसमें लेखक का
ध्यान मसफा उपमा के मवशेर्ष प्रयोग पर के मन्द्रत रहा है । मकसी मवर्षय-वस्तु के विान के मलए ऐसे-ऐसे पैने और सटीक उपमा और उपमानों का प्रयोग मकया गया है, जो वण्यावस्तु के भाव को दपाि स्टश प्रमतमबमम्बत करने में अमत सक्षम है । ऐसा उदाहरि अन्यत्र दूलाभ है-
‘ पूसण्णकमाक चान्द्द अमृत पूरल अइिन मुँह ।...
अधर कसनअराक कर अइिन नाक िीन्द्दुर मोसत लोिाएल अइिन दान्द्त ।...’
िणकरयनाकर में सचसित मैसथली स्त्री विारत्नाकर मैमथल स्त्री के मवमवघ स्वरुपों का रंग- मबरंगा मचत्राधार( अलबम) है । स्त्री के प्रत्येक रुप पर मैमथल मपतृसत्तात्मक समाज हावी प्रतीत होता है । विारत्नाकर में स्त्री कहीं धमापरायिा अधािंमगनी के आदशा रुप में है, तो कहीं नामयका के रुप में अपने अलौमकक रुप लावण्य से त्रैलोक को देदाप्यामान कर रही है, कहीं चुगली करने वाली स्त्री( कु टज्ञ) की कका श वािी से समाज को त्रस्त; कहीं पुरुर्षों द्वारा बलपूवाक नताकी, नगरवघू बना मदए जाने पर मववश स्त्री की करुि गाथा है, तो कहीं स्त्री के अंग-उपांग का ऐसा प्रतीकात्मक मचत्र दश ाया गया है, जो स्त्री शरीर के प्रमत मैमथल पुरुर्ष के भोगवादी संकीिा सोच को प्रदमशात करता है ।
एक स्त्री को देवी से नगरवघू बनाने वाला वचास्ववादी पुरुर्ष समाज ही होता है । क्योंमक, स्त्री के इन दोनो रुपों से लाभामन्वत पुरुर्ष समाज ही होता है । जहाँ वह स्त्री के देवी स्वरुप से अपने सभी ममथ्या-कमा को क्षमा करने पर मववश करता है, वहीं नगरवधू बनाकर प्रत्येक वगा और उम्र का पुरुर्ष उसका उपभोग कर उसे अपमान करके दलदल में धके ल स्वयं मनष्ट्कलंक हो प्रमतष्ठा की ममथ्या पगड़ी बाँधें समाज में बेधरक घूमता है ।
Vol. 3, issue 27-29, July-September 2017. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017