Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 111

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
व्यक्त मकये हैं । इस युग के नाटकों में प्रकृ मत के अनुरूप ही इस युग के लेखकों ने नाट्य – रचना की नाटक के संबंध में आलोचना और समीक्षाएं मलखी तथा नाटकों के प्रस्तुतीकरि और अमभनय में भी खुद भाग मलया । मकसी भी युग में इतने पूिाकामलक नाटक कम मलखे गए हैं ।
3 ) प्रिाद युगीन सहंदी नािकों का स्िरुप : - भारतेंदु के बाद नाटक आन्दोलन का कु छ समय गमतशील मदखाई देता हैं , महंदी क्षेत्र के रंगमंच जैसा संके त मकया गया , कु छ तो सामामजक रुमढयों के चलते मवकमसत नहीं हो पाया । मफर यहाँ के नाटक- लेखक ने अपने ही से हीन माना और दोनों के बीच सहयोग के बजाय अंतराल बढ़ता गया । अपने रंगमंच नाटक में प्रसाद मलखते है मक – यह प्रत्येक काल में माना जाएगा मक काव्यों के अथवा नाटकों के मलए ही रंगमंच होते हैं । काव्यों की सुमवधा जुटाना रंगमंच का काम है .. रंगमंच के सम्बन्ध में यह भ्रम है मक नाटक रंगमंच के मलए मलखे जाएँगे , प्रयत्न तो यह होना चामहए मक नाटक के मलए रंगमंच हो । इससे यह स्पसे होता है मक नाटक पहले या रंगमंच , इस दुसेचक्र में पड़कर महंदी क्षेत्र का रंगमंच लम्बे अरसे तक मशमथल पड़ा रहा ।
बाद में ‘ अमभनय चन्द्रगुप्त ’ के नाम से प्रकामशत कर मदया गया ( 1977 ) । चन्द्रगुप्त मौया का यह अमभनय मदसंबर 1933 में काशी में हुआ था । मजसकें पूवााभ्यास में स्वयं प्रसाद बैठते थे । उसके बाद 1912 में नागरी प्रचाररिी पमत्रका में ‘ कत्यानी पररचय ’ नामक नाटक छपा । बाद में इसी का संशोमधत पररवामधत रूप 1931 में चन्द्रगुप्त नाम से प्रकामशत हुआ । कत्यानी पररिय ( 1912 ) , चन्द्रगुप्त मौया ( 1931 ), अमभनय चन्द्रगुप्त ( 1933 ), और अंमतम नाटक ध्रुवस्वाममनी ( 1933 ) को उन्होंने , मंच की अनेक सुमवधाओं को ध्यान में रखकर मलखा । इस नाटक में आकार कम है , तीन अंक है मजसमें कु ल तीन ्टश्य – बंध है , पात्रों की संध्या आठ है । और ब्यौरेवार रंग-नदेश हैं । संगीत की बहुलतः कम है राष्ट्रीय भाव-बोध की अमभव्यमक्त प्रसाद के नाट्य मवधान का मूलाधार कहा जा सकता हैं ।
4 ) प्रिादोत्र सहंदी नािकों का स्िरुप –
प्रसादोत्तर नाटक में गुिात्मक पररवतान उपमस्थत करने वाले नाटककार में प्रमुख है भुवनेश्वर । इस काल में पौरामिक और ऐमतहामसक परंपरा को लेकर नाटक मलखे गए । पौरामिक नाटक में उदयशंकर भट्ट के अम्बा ( 1935 ), सागर मवजय ( 1937 ), मत्स्यगंधा ( 1937 ), मवश्वाममत्र ( 1938 ), राधा ( 1941 ), सेठ गोमवन्ददास का किा ( 1946 ) , चतुरसेन शास्त्री का मेघवाद ( 1936 ), बेचैन शम ा उग्र का ‘ गंगा का बेटा ’ ( 1940 ), डॉ लक्ष्मी स्वरुप का नलदमयंती ( 1941 ), श्रीममत तारा ममश्र का देवयानी ( 1944 ), आमद प्रमुख है । प्रस्तुत इन लेखकों का ्टमसेकोि युग की वैज्ञामनकता और बौमद्धकता से प्रभामवत है । इसमलए ये लेखक पुरािों की कथा को नवीन अथा गररमा करने में सफल हुए है । वस्तुतः पुराि का अथा भी यही हैं । प्रसाद के बाद कई दशकों तक नाटक इसी दुष्ट्चक्र की इसमें रंगमंच की आवश्यकताओं पर ज्यादा ध्यान
सन 1900 से लेकर 1920 तक महंदी सामहत्य के इमतहास में मद्रवेदी युग माना जाता है । इसी युग में प्रसाद के नाटकों का भी मजक्र मकया गया हैं । महंदी नाटक में प्रसाद के आने से गुिात्मक पररवतान होता है । सीधी सपाट भार्षा की तुलना में लाक्षमिक और अमधक अथा संपन्न भार्षा का प्रयोग होने लगता है , मजसे उन्होंने छायावादी कमवता के माध्यम तत्वाधान में मवकमसत मकया । प्रसाद ने खुद चन्द्रगुप्त मौया के अमभनय में सक्रीय रूमच ली थी और उसका एक संपामदत संस्करि प्रस्तुत मकया था मजसे बहुत मदनों Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017