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वैश्वीकरण विरोधी आ्कार ले रहा है , द्कनतु राजनीदत्क सतर पर उस्के प्रति सत्क्फता ्की ्कमी ्की वजह से ्कई बिार विचार्कों ्का द्नद् रचना्कारों में भी दिखाई देता है । रचना्कार अपने लेखन में वैश्वीकरण द्ारा पैदा ्की गई पररषस्दतयों ्के विरोध में दिखाई देते हैं और बिातों में उस्के समर्थन में । दलित राजनीदत्क- सामादज्क आनिोलन जिस तरह अतीत में साहितय ्को प्रभावित ्करते रहे थे , दलित विषय्क साहित्यकार जिस तरह अपने नेतृत् से प्रेरणा ले्कर रचनाएं लिख रहे थे , आज आवश्यकता और पररषस्दत पहले से ग्भीर होने ्के बिावजदूि दलित विषय्क साहित्यकार संवेदना ्के धरातल पर तो बिहुत सी बिातें ्कह पा रहे हैं , द्कनतु वैचारर्क राजनीदत्क नेतृत् ्को ले्कर दुविधा में खड़े हैं । सम्कालीन दलित विषय्क रचनाशीलता में यह स्र उभर ्कर आ रहा है द्क वयाप्क राजनीदत्क लक्य ्के लिए समाज में प्रगतिशील राजनीति ्का वयाप्क ग्बिनधन होना चाहिए द्कनतु पदूरी सत्क्फता ्के साथ ।
वैश्वीकरण ्के इस दौर में दलित लेदख्काएं दलित आनिोलन ्को पुनर्विशलेदरत ्करने ्की मांग ्कर रही हैं , कयोंद्क पितृसत्तात्मक संरचना ्कमजोर होती नहीं दिखाई दे रही हैं । वसतुतः अगर दलित सत्ी लेखन ्को सत्क्फता से खंगाला जाए तो हम पाएंगे द्क जो जितने हाशिए पर
है , उस्की आवाज साहितय में वैश्वीकरण ्के उतने ही खिलाफ है । हाशिए से आ रही आवाजों में भले ही वैश्वीकरण ्की सैद्ाषनत्क समझदारी सबि्के पास न हो , पर उन्के अनुभव और संवेदनाएं इन वैचारर्क समझदारियों से ्कहीं जयािा परिपक् हैं । दलित और जनजातीय षसत्यों ्के समक् विदेश घदूमने , नई त्कनी्कों ्को जानने , मोबिाइल-इणटरनेट ्का प्रयोग ्करने से जयािा अपने दैनषनिन जीवन ्की जरूरतें पदूरी ्करने ्की चिनता है । वैश्वीकरण तो बिहुत बिाद ्की बिात है । संचार-काषनत ्के दावे जनजातीय स्त्ी ्के लिए द्कसी ्काम ्के नहीं हैं । ्कद् ्कैलाश वानखेड़े वैश्वीकरण ्की गहरी समझ रखते हैं ।
महदू और सीधा प्रसारण जैसी ्कहानियां यह बिताती हैं द्क वैश्वीकरण ्के साथ सत्ी ्के शोषण ्के नए हथियार इजाद हुए हैं । ्कैलाश लिखते हैं द्क पीटर इंगलैणड ्की शर्ट पहनने वालों ्को बिस यही लगता रहता है द्क हर वसतु ्का निजी्करण ्कर देना चाहिए । आखिरी मनु्य ्की चिनता द्कसी ्को नहीं है । ‘ ग्लोबल इन्ेसटसमा ’ द्कस्के लिए आ रहे हैं , इस्की चिनता द्कसी ्को नहीं है । इन द््ककृत पररषस्दतयों में दलित प्रश्न ्को दबिल्कुल नए सिरे से खंगालने ्की मांग ्कर रही हैं दलित लेदख्काएं । दलित विषय्क साहितय ्के इस मांग ्को द्क भारतीय समाज ्को समझने ्के लिए इस्का परत दर परत अवलो्कन जरूरी
है , दलित षसत्यां ए्क और चरण आगे ले जा रही हैं । भारतीय समाज में अगर ए्क परत जाति वय्स्ा ्का है , तो ए्क परत पितृसत्ता ्की भी है । वैश्वीकरण ्के गाजे-बिाजे में इस पितृसत्ता से मुषकत ्की ्कोई षस्दत इन दलित लेदख्काओं ्को नहीं दिखाई दे रही है । चर्चित ्क्दयत्ी सुशीला टा्कभौरे ने निजी्करण और वैश्वीकरण ्का जम्कर विरोध द्कया है । सुशीला ्का मानना है द्क उदारी्करण , निजी्करण और भदूमणडली्करण हाशिए ्के समाज ्को बिंधुआ मजिदूर बिना्कर ही छोड़ेंगे । अनीता भारती ्का ्कहना है द्क भदूमणडली्करण , बिाजारी्करण ्के चलते उस्के श्रम ्की ्कीमत दिन पर दिन ्कम होती जा रही है , जिस्के ्कारण उस्के परिवार पर व उस्के ऊपर इस्का सीधा असर पड़ रहा है ।
इस तरह ्कहा जा स्कता है द्क वैश्वीकरण द्ारा उतपन्न पररषस्दतयों में पारिवेदश्कता से मुषकत ्की आ्कांक्ा ने दलित बिुदद्जीवियों , रचना्कारों , नेताओं इतयादि ्को पुनः ए्क बिार उद्ेदलत द्कया है । ए्क धारा वैश्वीकरण से उपजी नवीन पररषस्दतयों में से दलित समुदाय ्के लिए अवसर दन्कालने ्का हिमायती है , द्कनतु िदूसरी धारा ्का यह मानना है द्क वैश्वीकरण जिन प्रदकयाओं , प्रवृत्तियों ्का द््कास ्कर रहा है , उस्की परिणति दलित समाज ्के हाशिया्करण में ही होगी । जहां त्क दलित विषय्क साहितय ्की बिात है , उस्का सामानय चररत् वंचित तबि्कों द्ारा झेली गई द्द्रदूपताओं ्को अभिवयषकत देने ्का रहा है । वैश्वीकरण ्के सम्बनध में अभी भी दलित साहितय में स्र तैयार हो ही रहा है । द्कनतु जो सामानय स्र उभर रहा है , उस्का चररत् 1990 से आर्भ हुए वैश्वीकरण ्के अस्वीकार ्का ही है । दलित विषय्क साहितय ्का महत्् तभी होगा , जबि वह न ्केवल वर्तमान दलित तबि्कों ्की मुषकत ्का रासता खोले , बिषल्क वह रासता भी दिखाए , जिससे समाज में ऐसी द््ककृत पररषस्दतयों ्की स्भा्ना ही न हो । उनहें ए्क ऐसा वैश्विक आंगन चाहिए जो द्कसी ्को भी अपरिचित न लगे । �
50 tuojh 2024