्रान । माला , आंध्र प्रदरेश की दो प्रमुख एससी जाद्तयदों में सरे एक है । इसके लरेखक उन्नावा लक्मीनारायणा ( 1877-1958 ) एक ऊँची जाद्त सरे ररे । दो माद्म्थक ककृद्तयां जो हाथ सरे मैला साफ करनरे की प्रथा और उस समुदाय के चरित्रदों को द्चद्त्रत करती हैं , वरे हैं थोद््टयुडे माकन और थोट्टी । इन दोनदों ककृद्तयदों के लरेखक रिमश : थकाजी द्शवशंकर द्पललई ( जो अपनरे उपनयास चरेमरेन के द्लए अद्धक जानरे जातरे हैं और द्जस पर द्फलम भी बनाई जा चुकी है ) और नागवलली आर . एस . कुरू ररे । यरे दोनदों ककृद्तयां 1947 में प्रकाद्शत हुईं थीं । यह द्दलच्प है द्क ' मरेहतर का पुत्र ', ' मरेहतर ' के पूर्व प्रकाद्शत हुआ था । कुमारन आसन की दुराव्रा व चंडाल द्भक्ुकी भी दद्लत समुदायदों के बािरे में हैं । कुमारन आसन ्वयं इद्ड़वा समुदाय के ररे । उस समय इद्ड़वाओं को भी ' अछूत ' माना जाता था , हालांद्क वरे इस प्रथा सरे उतनरे पीद्ड़त नहीं ररे द्जतनरे द्क दद्लत ।
शिक्षा के लिए हुए संघर्ष पर आधारित ' जूठन '
द्हंदी दद्लत साद्हतय में ओमप्रकाश वाल्मीकि की आतमकथा ' जूठन ' नरे अपना एक द्वद्शष््ट ्रान बनाया है | इस पु्तक नरे दद्लत , ग़ैर-
दद्लत पाठकदों , आलोचकदों के बीच जो लोकद्प्रयता अद्ज्थत की है , वह उल्लेखनीय है । ्वतनत्रता प्रासपत के बाद भी दद्लतदों को द्शक्ा प्रापत करनरे के द्लए जो एक लंबा संघर्ष करना पड़ा , ' जूठन ' इसरे गंभीरता सरे उठाती है । प्रस्तुति और भाषा के ्ति पर यह रचना पाठकदों के अनतम्थन को झकझोर दरेती है । भारतीय जीवन में रची-बसी जाद्त-वयव्रा के सवाल को इस रचना में गहिरे सरोकािदों के साथ उठाया गया है । सामाद्जक , धाद्म्थक , आद्र्थक द्वसंगद्तयां कदम – कदम पर दद्लत का रा्ता रोक कर खड़ी हो जाती है और उसके भीतर हीनताबोध पैदा करनरे के तमाम षड्ंत्र रचती है । लरेद्कन एक दद्लत संघर्ष करतरे हुए इन तमाम द्वसंगद्तयदों सरे अपनरे आत्मविशवास के बल पर बाहर आता है और जरेएनयू जैसरे द्वश्वविद्यालय में द्वदरेशी भाषा का द्वद्ान बनता है । ग्ामीण जीवन में अद्शद्क्त दद्लत का जो शोषण होता रहा है , वह द्कसी भी दरेश और समाज के द्लए गहरी शर्मिंदगी का सबब होना चाद्हए था ।' पच्ीस चौका डेढ़ सौ ' ( ओमप्रकाश वाल्मीकि ) कहानी में इसी तरह के शोषण को जब पाठक पढ़ता है , तो वह समाज में वयापत शोषण की संस्कृद्त के प्रद्त गहरी द्निाशा सरे भर उठता है ।
सदियों के उतपीड़न से पनपा आक्ोश
दद्लत कहाद्नयदों में सामाद्जक परिवरेशगत पीड़ाएं , शोषण के द्वद्वध आयाम खुल कर और तर्क संगत रूप सरे अद्भवयकत हुए हैं । ' अपना गाँव ' मोहनदास नैद्मशराय की एक महत्वपूर्ण कहानी है जो दद्लत मुसकत-संघर्ष आंदोलन की आंतरिक वरेदना सरे पाठकदों को रूबरू कराती है । दद्लत साद्हतय की यह द्वद्शष््ट कहानी है । दद्लतदों में स्वाभिमान और आत्मविशवास जगानरे की भाव भूद्म तैयार करती है । इसीद्लए यह द्वद्शष््ट कहानी बन कर पाठकदों की संवरेदना सरे दद्लत सम्या को जोड़ती है । दद्लतदों के भीतर हज़ारों साल के उतपीड़न नरे जो आरिोश जगाया है वह इस कहानी में ्वाभाद्वक रूप सरे अद्भवयकत होता है ।
इतिहास की पुनवयापिखया की कोशिश
आतमकथाओं की एक द्वद्शष््टता होती है उसकी भाषा , जो जीवन की गंभीर और क्टू अनुभूद्तयदों को तटस्थता के साथ अद्भवयकत करती है । एक दद्लत ्त्री को दोहिरे अद्भशाप सरे गुज़िना पड़ता है- एक उसका ्त्री होना और दूसरा दद्लत होना । स्पष्टतः दद्लत द्चंतकदों नरे रूढ़िवादी इद्तहास की पुनवया्थखया करनरे की कोद्शश की है । इनके अनुसार ग़लत इद्तहास - बोध के कारण लोगदों नरे दद्लतदों और स्त्रयदों को इद्तहास - हीन मान द्लया है , जबद्क भारत के इद्तहास में उनकी भूद्मका महतवपूर्ण है । दद्लत द्चंतकदों नरे इद्तहास की पुनवया्थखया करनरे की कोद्शश की है । इनके अनुसार गलत इद्तहास - बोध के कारण लोगदों नरे दद्लतदों और स्त्रयदों को इद्तहास - हीन मान द्लया है , जबद्क भारत के इद्तहास में उनकी भूद्मका महतवपूर्ण है । वरे इद्तहासवान है । द्सफ्क जरूरत दद्लतदों और स्त्रयदों द्ािा अपनरे इद्तहास को खोजनरे की है । वरे इद्तहासवान है । द्सफ्क ज़रूरत दद्लतदों और स्त्रयदों द्ािा अपनरे इद्तहास को खोजनरे की है । �
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