eMag_Sept2021_DA | Page 50

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की भरमार है लेकिन प्रोतसाहन और अपेलषित आमदनी के अभाव में इनहें इन कलाओं को छोड़कर जीविकोपार्जन के अन् साधनों अपनाना पड़ता है । अगर समग्रता में कला के षिेरि पर नजर डाली जाए तो लचरिकला और मूर्तिकला के कलाकारों के सामने अभी आजीविका की समस्ा नहीं है लेकिन मयंच कला से सयंबयंलधत कलाकारों की समस्ाएयं दिनानुदिन बढ़ती ही जा रही हैं । लोक — गाथा गायन की कला वर्ष 1970 के दशक तक दलित वर्ग में गिने जानेवाले मिथिलायंचल के दुसाध और पासवान समाज के दायरे तक ही सीमित था । मिथिलायंचल की सायंसकृलतक राजधानी कहे जानेवाले मधुबनी के दो प्रमुख लोक — गाथा गायकों विसुनदेव पासवान और गयंगाराम ने अपने परिवार में किसी को भी लोकगाथा गायन परयंपरा में शामिल नहीं किया । गयंगाराम का निधन 1977 में हो गया जिसके बाद
इनकी मयंििी विखयंलित व छिन्न — भिन्न होकर समापत हो गई । हालायंलक विसुनदेव पासवान की घोंघरडीहा सलहेस नाच मयंििी अब भी कायम है जिसमें विसुनदेव ही अब भी दलनायक की भूमिका निभाते हैं । वे कहते हैं कि उनके आसपास के कई गावों के कलाकार अब इस कला में रुचि नहीं ले रहे हैं । इसी प्रकार एक अन् लोक — गाथा गायन विधा के कलाकार राम उदगार का कहना है की उनके बेट़े और पत्नी को गायन और वादन का कार्य अचछा नहीं लगता है क्ोंकि क्ोंकि समाज में इससे इज्जत नही मिलती । राम उदगार का इसलिए भी लोक — गाथा गायन से नई पीढ़ी का लगाव कम होता हुआ महसूस होता है क्ोंकि
इस विधा में अब उतना पैसा भी नहीं है जिस पर निर्भर होकर जीवन — यापन किया जा सके । इसके अलावा प्रशासन द्ारा उचित प्रोतसाहन नहीं मिलने के कारण भी सथानीय कलाकारों की आर्थिक षसथलत लगातार जर्जर होती गई है ।
दलित समाज का लोक — कलाओ ंमें अतुलनीय
योगदान लोकगाथा के सयंबयंध में उलिेखनीय है कि
ब्रिटिश लेखक जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपने भाषाई अध्न के दौरान राजा सलहेस की गाथा एक डोम कलाकार से सुनी जिसे उनहोंने अपनी पुसतक मैथिली लकसटोपैथी में सथान दिया । इसी प्रकार एक अन् लेखक विलियम जी आर्चर ने 1934 में आए बीसवीं सदी के सबसे विनाशकारी भूकंप के बाद मिथिला के गायंवों की ध्वंसित दीवारों पर
राम उद्ार का इसलिए भी लोक — गाथा गायन से नई पीढ़ी का लगाव कम होता हुआ महसूस होता है क्ोंकि इस विधा में अब उतना पैसा भी नहीं है जिस पर निर्भर होकर जीवन — यापन किया जा सके । इसके अलावा प्रशासन द्ारा उचित प्रोत्ाहन नहीं मिलने के कारण भी स्ानीय कलाकारों कती आर्थिक स्थिति लगातार जर्जर होती गई है ।
बने लचरिकला को देखकर उसकी फोटोग्राफी की जो दलित समाज के लोगों द्ारा ही बनाई गई थी । विडंबना यह है कि कला सयंसकृलत में लोक — नाट्ों , लोक — गाथाओं तथा लोक — लचरिकलाओं पर कई शोध हुए लेकिन उनमें दलित अभिव्षकत्ों पर सबसे कम ध्ान दिया गया क्ोंकि अधिकतर शोधकर्ता अपने पूर्वाग्रहपूर्ण सोच से नहीं उबर पानेवाले समाज के कथित उच् वर्ग से थे जिनकी लोक — कलाओं व लोक — साहित् के षिेरि में दलितों के योगदान के बारे में जानने या बताने में कोई विशेष रुचि नहीं थी । जबकि लोक — कलाओं को जीवित रखने और उसे आगे बढ़ाने में दलित समाज के
योगदान की बात करें तो मिथिलायंचल की एक ऐसी ही कला की चर्चा किए बिना बात अधूरी ही रहेगी जिसे रसनचौकी कहा जाता है । मिथिलायंचल के सर्वसमाज में रसनचौकी का बहुत अधिक महतव है और हर घर में तमाम शुभका्गों से लेकर पूजा — पाठ और व्रत — त्ोहार के मौके पर कलाकारों की टोली द्ारा इसका प्रसतुलतकरण होता ही रहा है । रसनचौकी में मूल रूप से ताशा और शहनाई की युगलबयंदी होती है । इसकी खासियत है कि इसके सभी कलाकार दलित वर्ग से ही आते हैं । लेकिन अपेलषित प्रोतसाहन और सयंवर्धन के अभाव में अब रसनचौकी की परयंपरा को आगे बढ़ानेवाले कलाकारों की कमी होती हुई सप्ट महसूस की जा रही है । ऐसे ही एक विलुपत होने के कगार पर पहु यंच चुकी नृत् — सयंगीत कला है , ' पमरिया — नाच ' जिसमें पुरुष कलाकार ही महिला का रूप धरकर गीत — सयंगीत के माध्म से स्वांग का मयंचन करते हैं । इसके भी सभी कलाकार दलित समाज के ही होते हैं ।
हर तिर पर लोक — कलाओ ंके संरक्षण —
संवर्धन की जरूरत इस प्रकार यदि समग्रता में समझें तो
मिथिलायंचल की अधिकतर लोक — कलाओं के कर्णधार दलित समाज के लोग ही हैं जिनके कारण मिथिलायंचल की लोक — कला सयंसकृलत आज भी अषसततव में है । लेकिन अपेलषित प्रोतसाहन और सयंवर्धन के अभाव में इन परयंपरागत कलाओं कोे आगे बढ़ाने में भारी अड़चने आ रही हैं । यदि इस पर ध्ान नहीं दिया गया तो सदियों की सामाजिक धरोहर से आने वाली पीढ़ी को वयंलचत होना पड़ सकता है । लिहाजा आव््क है कि सामजिक सतर पर भी लोक — कलाकारों को ' घर की मुगटी दाल बराबर ' ना समझा जाए बषलक उनके लिए समुचित मान — सममान और पारितोषिक का इयंतजाम किया जाए और शासन — प्रशासन के सतर पर भी लोक — कलाओं का सयंरषिर , सयंवर्धन व पोषण किया जाए ताकि लोक — कला व सयंसकृलत के षिेरि में मिथिला की समृद्ध पहचान अषिुणर रहे । �
50 दलित आं दोलन पत्रिका flracj 2021