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में रहना चाहिए । हिनदू समाज के ज्ान देने के लिए सयंत रैदास ने अपनी काव्-रचनाओं में सरल , व्ावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया , जिसमें अवधी , राजसथानी , खड़ी बोली और उर्दू-फ़ारसी के शबदों का भी लमश्र है । उपमा और रूपक अियंकार के माध्म से उनहोंने हृदय के भाव बड़ी सफाई से प्रकट किए हैं । सयंत रैदास के चालीस पद पलवरि धम्णग्रयंथ ' गुरुग्रयंथ साहब ' में भी सषममलित हैं । उनकी लोक-वाणी का अछवुत प्रयोग था , जिसका मानव धर्म और समाज पर अमिट प्रभाव पड़ता है ।
देखा जाये तो सयंत रैदास का जीवन और काव् उदात मानवता के लिए आव््क सदाचारों के शा्वत सैद्धायंलतक मूल्ों का अषि् भयंिार है , जिसमें से प्रत्ेक वर्ग और षसथलत तथा मानसिक सतर पर व्षकत अपने लिए सुयंदर-सुयंदर मोतियों का चुनाव सुगमता से कर सकता है । उनहोंने लहयंदू समाज में भावातमक एकता सथालपत करने का प्रयास किए । छुआछूत तथा वर्ण व्वसथा का विरोध करने के साथ ही उनहोंने ' जीवहत्ा ' को पाप घोषित कर मायंसाहारी जैसी प्रवृत्ति को समापत करने का प्रयास किया तथा अलहयंसा के वैदिक लसद्धायंत का प्रचार किया । वह मानव मारि को पूजा के साथ-साथ श्म के प्रति आसथा का भी उपदेश देते हैं । उनहोंने ततकािीन समाज में व्ापत सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक शोषण के खिलाफ आवाज उठाई और एक ऐसे समाज की कलपना की थी जिसमें ये सब विषमता न हों ।
सयंत रैदास केवल वाणी में आध्ाषतमक विकास नहीं करते थे , बषलक जो कहना होता
था , उसे स्वयं ही करने लगते थे । सामाजिक मान्ताओं का सनातनी सवरूप उनहें सवीकार्य था , किनतु उनमें थोपी गयी किसी भी अनाव््क पदध्लत को वह नहीं सवीकार करते थे । उनहोंने सप्ट कहा था कि समाज के कर्म के आधार पर अथवा जनम के आधार पर अथवा किसी भी आधार पर उतपन्न की गयी सामाजिक विषमता हिनदू धर्म को सयंगठित करने के लिए सबसे बड़ी बाधा हो सकती है । इसलिए भेदभाव निर्मूलक और सामाजिक विषमता निरोधक पररषसथलत्ों को उतपन्न करने की आव््कता है ।
लव्व की किसी भी सयंसकृलत से हिनदू सयंसकृलत को एकमत से सर्वश्े्ठ सवीकार किया जा चुका है कि सनातन एवयं सार्वभौमिक होने के कारन यह लव्व के सभी लोगों के लिए व्ावहारिक एवयं सुग्राह्य है । सयंत रैदास ने इसी विशेषता के समाज का आह्ाहन किया था कि समपूर्ण समाज हिनदू सयंसकृलत का पालन करे और आपने आचार- व्वहार , मर्यादित कर्तव्ों के माध्म से सामाजिक समरसता के वातावरण को निर्मित करे । सयंत रैदास ने आम लोगों को हिनदू सयंसकृलत के गूढ़ रेश्ो को समझाया और कहा कि यह हिनदुसथान में रहने वाले लोगों के लिए जीवन का सबसे बड़ा उपहार है , परनतु इसको प्रापत करने के लिए जितनी अचछी सोच किसी हिनदू में हो सकती है , उतनी किसी अन् में नहीं हो सकती है । इसलिए हिनदू समाज को चाहिए कि वह किसी अन् से इसके लिए अपेषिा न करे और किसी अन् पर इसे थोपने का भी प्रयास न करे । जो लोग इसकी विशेषता को समझ लगे , वह हिनदू हों या मुसलमान , सवतः ही
इसको अपना लेने हेतु तैयार हों जायेगे ।
सयंत रैदास ने हिनदू सयंसकृलत के अनुपालन करने हेतु हिनदू समाज को निरयंतर अवगत कराया । उनके आह्ाहन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनहोंने जीवन सयंसकृलत के दोनों ही पषिों को साथ-साथ लिया था और जितना बल आध्ातम पर दिया , उतना ही भौतिक जीवन पर भी दिया । उनका कहना था कि हिनदू सयंसकृलत के सयंवहन में आध्ातम और भौतिक यानी दोनों का ही समाज सहयोग होता है । इसलिए किसी भी एक के सहारे मानव जीवन पूर्णतः को प्रापत नहीं कर सकता है । उनहोंने स्वयं ही हिनदू सयंसकृलत के इन दोनों आयामों को आतमसात करके अपने अनुयायियों का भी मार्ग प्रशसत किया । उनहोंने इस भरम का खयंिन किया कि धर्म का समबनध किसी विशेष जाति या मानव से है । उनहोंने सनदेश दिया था कि समपूर्ण लव्व एक ही समाज का दूसरा नाम है और सभी समाज में केवल मानव धर्म को मानने वाले रहते है । जो मानव समाज को मिटाने में लगे हैं , उनको मानव श्ेरी में रखना और उनको सामाजिक मानना गलत हैं । बल के घमयंि में जब भी मानव समाज को मिटाने का कार्य हुआ , ऐसा करने वाले केवल राषिस ही कहे गए थे ।
सयंत रैदास का कहना था कि समाज का वह सवरूप कभी नहीं रहा , जहायं मानवता के सयंहारक निवास करते हों , बषलक समाज का सवरूप तो केवल वह हैं , जहायं मानव-मानव एक समान होते हैं और सभी का एक सनातन धर्म होता है , जिसमें लहयंसा नहीं , बषलक करुणा और मैरिी के भाव होते हैं । ऐसा समाज सिर्फ हिनदू समाज ही है , जिसको सनातन हिनदू समाज का आदिकाल से उपहार प्रापत है । देखा जाये तो अपने पूरे जीवन में सयंत रैदास ने मानव समाज के कल्ारार्थ मानवतापरक हिनदू जीवन पदद्लत एवयं सयंसकृलत का खुलकर प्रचार किया और एक महान हिनदू सयंत के रूप में सदैव मर्यादित भी हुए ।
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42 दलित आं दोलन पत्रिका flracj 2021