eMag_Sept-Oct 2023_DA | Page 50

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का अससितवबोध होगा ही नहीं और सामाजिक समरसता से सम्पदूण्त मानव समाज सराबोर रहेगा ही । ऐसे ही अनय लक्षणों को सर्वप्रिय एवं सर्वलाभदायक सवरू्प में सवीकार किया जाए तो समाज में विषमता का नाम नहीं रहेगा और सामाजिक समरसता की स्थापना सवयं स्थापित हो जाएगी । अनय श््ों में कह सकते हैं कि सामाजिक समरसता का अर्थ अथवा उसकी ्परिभाषा हिन्दू धर्म के दस लक्षणों को आतमसात् किए हुए है । हिन्दू्परक सामाजिक समरसता से सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक , राजनैतिक और सांस्कृतिक समरसता प्रापि की जा सकती है ।
सामाजिक दृसषटकोण में सामाजिक समरसता मानवीय मदूलयों ्पर आधारित सामाजिक संगठन के सन्भ्त में सानुकरूल एवं सार्थक ्परिणाम है । सामाजिक सुख-शासनि की ्पृषठभदूतम में सामाजिक समरसता एक समाजशासत्ाीय विषय है । यह आधुनिक समाजशासत् अथवा समाजविज्ान का एक नयायवादी एवं संवैधानिक शासत् का समग् तथा शासत्ीय चिनिन है । यह दो या दो से अधिक लोगों को एक-्दूसरे के सन्निकट लाने और आ्पस में समसनवि कर देने की प्राककृतिक एवं सवाभाविक प्रतरिया है । संसार के सभी प्रकार के मानव समाज की सुदृढ़ता के लिए यह एक प्रशंसनीय आग्ह एवं
आवशयक ्पहल है । सामाजिक समरसता की अनुशंसा के अनुमोदक भी अब यह मानने लगे हैं कि सामाजिक समबनिों को शाशवि एवं सुमधुर बनाए रखने के लिए सामाजिक समरसता शासत् एक कुंजी है । विशव भर में प्रापि प्रतयेक विषम , प्र्दूतरि एवं रूतढ़ग्सि मानव समाज को सर्वप्रिय बनाने और नवीन ्परिधान में सुसंगठित करने के लिए सामाजिक समरसता की अवधारणा एक अत्परहार्य धैर्य , सानतवना और विशवास है । सामाजिक समरसता दर्शन अ्पने आ्प में सामाजिक संगठन का कारक और कारण , दोनों है ।
सामाजिक समरसता दर्शन की अवधारणा एक भेदभावमुकि समाज की निर्मात्ी है । सामाजिक विषमता , कृत्रिम भेदभाव्पदूण्त जातीयता , रंगभेद अथवा प्रजाति भेद और आर्थिक भेदभाव ्पर आधारित ्दूतरि मानसिकता एवं अनैतिकतायुकि वयवहार की समासपि हेतु संसार में सामाजिक समरसता दर्शन की अवधारणा एक अचदूक औषधि है । यह एक ऐसी सामाजिक दशा है , जिसमें भेदभावरहित मानव समाज एक साथ आचार-वयवहार करता हुआ जीवनया्पन करता है और उसमें किसी भी प्रकार की आ्पस में दीवार नहीं होती है । मानव समाज के सभी वगषों की आ्पस में एकता एवं समबद्धता को स्थापित करके उनको सुख-शासनि प्रदान
करने में सहायक होने के कारण सामाजिक समरसता की अवधारणा में किसी भी प्रकार की विषमता के लक्षण नहीं ्पाए जाते हैं । मानव समाज के संयुकि ्परिवार , जो आज आर्थिक भेद ्पर आधारित सिरीकरण के कारण ्दूतरि हुआ , उसे सुधारकर ्पुनजटीतवि करने हेतु सामाजिक समरसता सुख-समृद्धि , शासनि एवं कलयाण की एक ्परिणति है ।
धार्मिक आधार ्पर सामाजिक समरसता को धर्माद्रित करते हुए भारतीय समाजशाससत्यों ने कहा है कि ्पुरुषार्थ का प्रथम साधन ‘ धर्म ’ समाज से अलग नहीं है , इसलिए ‘ धार्मिक मानव समाज ’ कहा जाए अथवा ‘ सामाजिक धर्म ’ कहा जाए , सामाजिक समरसता दोनों ही सन्भ्त से जुड़ी हुई है । संसार में सामाजिक समरसता धर्म को सर्वग्ाह्य बनाने की मीठी टिकिया है । धर्म के सभी दसों लक्षण सामाजिक समरसता से अतभ्पदूण्त होने ्पर ही मर्यादित होते हैं । आश्म- धर्म की रीढ़ सामाजिक समरसता है । यह लोगों को धर्माेनमुख बनाए रखने की एक सक्षम प्रेरणा है ।
सामाजिक समरसता का अभिप्राय आधयासतमक दर्शन से भी जुड़ा हुआ है । यह मदूलयवान दार्शनिक शासत् की कड़ी है । भारतीय दर्शन ्पर आधारित सामाजिक समरसता एक सामानय प्राककृतिक प्रतरिया है । यह मन , आदर्श , सहृदयता से समबसनिि भावनातमक अभिवयसकि अथवा प्रतरिया है , जिसे संसार में अवतारवाद का कारण भी माना जाता है । दार्शनिक चिनिन के ्परिप्रेक्य में यह स्पषट रू्प से कहा गया है कि सामाजिक नियमों एवं मान््िों के प्राककृतिक सवरू्प को बनाए रखने तथा मानव समाज में समरसता को सुदृढ़ करने के उद्ेशय से ही समय-समय ्पर भारतीय एवं अनयानय समाजों में ईशवरीय ततवों को धारण करने वाले साधकों का जनम हुआ है , और उनके प्रति्पादित नियम भी सार्वभौमिक होते हुए समरसता्पदूण्त रहे हैं । भारतीय दर्शन इसी को उदघोतरि करते हुए कहता है कि लोगों के वयवहार यदि आ्पस में समरसता्पदूण्त रहे तो भाईचारा एवं बनिुतव का भाव उत्पन्न होगा । �
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