है । सविंत्िा , समानता और सामाजिक नयाय की ्पृषठभदूतम में सुख-समृद्धि की आकांक्षा-्पदूति्त तनसशचि रू्प से स्ेतहल सहिषणुिा के मदूल्यपरक ‘ सामाजिक समरसता ’ ्पर ही आद्धृत है । इसीलिए दुषकर एवं दुर्गम ्परिससरतियों में भी सामाजिक समरसता के लिए प्रयास किए गए थे और आज भी उसे ्परमावशयक समझकर एक आवाहन का सवरू्प प्रदान किया जा रहा है ।
अतएव कहा जा सकता है , कि सामाजिक समरसता ्पदूण्तरू्पेण भारतीय चिनिन है कयोंकि प्राचीन भारतीय सामाजिक वयवसरा में धर्म यानी वैदिक सनातन हिन्दू धर्म का तात्पर्य " धारण करने " से है । सामाजिक नियम-कानदून को धारण करने से एक वयवससरि समाज का सवयमेव संचालन समभव होता है , ऐसे में धर्म सवयं सामाजिक समरसता का ्पया्तय है । उत्रा्पर के माधयम से शेष विशव में इसका प्रचार-प्रसार
मुखयिः भारतीय व्यापारियों के आवागमन से हुआ और बाद में कुछ विदेशी यात्ी भारत भ्रमण के लिए आए ; जैसे-फाह्यान , ह्नवेनसांग एवं मेगसरनीज आदि ने भी यहां की सामाजिक समरसता की प्रशंसा का उललेख अ्पने यात्ा- विवरणों में किया । भारतीय व्यापारी अ्पनी विदेशी व्यापारिक यात्ा एवं प्रवासों के समय अ्पने साथ ्पुजारी , जयोतिषी , सेवक आदि के साथ अनेकों सहयोगियों को लेकर जाते थे और भारतीय प्रतिनिधि के रू्प में वे , जो कुछ भारतीय जीवन-्पद्धति ्पर आधारित लोक जीवन के आधार ्पर धर्म-कर्म-अनुषठान आदि करते थे , उसी संस्कृति की छा्प वह विशव के अनयानय देशों में छोड़ भी आते थे और अनयानय देशों के मानव समाज उनमें से अ्पनी आवशयकता एवं ्पसन् के ्पक्ष को अ्पना लिया करते थे । ्परिणामसवरू्प आज वर्तमान में विशव संस्कृति
में भारतीय संस्कृति का दिग्श्तन होना एक प्रतयक्ष साक्य है ।
सामाजिक समरसता का भारतीय दृसषटकोण धर्म की अवधारणा से ्परर्पदूण्त एवं सामाजिक नियमों एवं कानदून के धारण करने से है । सामाजिक नियम-कानदून को धारण करना धर्म है , कयोंकि इससे एक वयवससरि समाज का सवयमेव संचालन समभव होता है । ऐसे में धर्म सवयं सामाजिक समरसता का ्पया्तय है । धर्म के दस लक्षण ( धृति , क्षमा , दम , असिेय , शौच , इसनद्रय-तनग्ह , आधयातम ज्ान , विद्ा , सतय तथा अरिोि ) को यदि रिमशः विशलेतरि करके देखें तो यह स्पषट हो जाता है , कि सामाजिक समरसता की भारतीय वयाखया ( ्परिभाषा अथवा अर्थबोध ) धर्म के इनहीं दस लक्षणों से समबसनिि है । उदाहरणार्थ धृति यानी धैर्य को यदि सर्वानुकरूल एवं सर्वहिताय बनाया जाय तो अधर्म
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