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वेदवचनमत्प प्रदर्शितं सवातम दयानन्ेन यथेमां वाचं इति ।”
डा . चनद्रभानु सोनवणे ने लिखा है कि मधयकाल में ्पौराणिकों ने वेदाधययन का अधिकार ब्ाह्मण ्पुरुष तक ही सीमित कर दिया था । सवामी दयानन् ने यजुववेद के ( 26 / 2 ) मंत् के आधार ्पर मानवमात् को वेद की कलयाणी वाणी का अधिकार सिद्ध कर दिया । सवामीजी इस यजुववेद मंत् के सतयार्थद्रषटा ऋ़षि हैं । ऋषि दयानन् के बलिदान के ठीक दस वर्ष बाद उनहें श्द्धांजलि देते हुए दादा साहेब खापर्डे ने लिखा था कि सवामीजी ने मंदिरों में दबा
तछ्पाकर रखे गए वेद भंडार समसि मानव मात् के लिए खोल दिए थे । उनहोंने हिं्दू धर्म के वृक्ष को महद् योगयिा से कलम करके उसे और भी अधिक फलदायक बनाया । वेदभाषय ्पदद्ति को दयानन् सरसविी की देन नामक शोध प्रबंध के लेखक डा . सुधीर कुमार गुपि के अनुसार सवामी जी ने अ्पने वेदभाषय का हिंदी अनुवाद करवाकर वेदज्ान को सार्वजनिक संपत्ति बना दिया । ्पं . चमदू्पति जी के श््ों में दयानन् की दृसषट में कोई अछटूि न था । उनकी दयाबल-बली भुजाओं ने उनहें अस्पृशयिा की गहरी गुहा से उठाया और आर्यतव के ्पु्य शिखर ्पर बैठाया था ।
हिंदी के सुप्रसिद्ध छायावादी महाकवि सदूय्तकांत त्रिपाठी निराला ने लिखा है कि देश में महिलाओं , ्पतितों तथा जाति-्पांति के भेदभाव
को मिटाने के लिए महर्षि दयानन् तथा आर्यससमाज से बढ़कर इस नवीन विचारों के युग में किसी भी समाज ने कार्य नहीं किया । आज जो जागरण भारत में दीख ्पड़ता है , उसका प्रायः सम्पदूण्त श्ेय आर्य समाज को है । महाराषट्र राजय संस्कृति संवर्धन मंडल के अधयक्ष मराठी विशवकोश निर्माता तर्क-तीर्थ लक्मण शासत्ी जोशी ऋषि दयानन् की महत्ा लिखते हुए कहते हैं कि सैकड़ों वरषों से हिंदुतव के दुर्बल होने के कारण भारत बारंबार ्पराधीन हुआ । इसका प्रतयक्ष अनुभव महर्षि सवामी दयानन् ने किया । इसलिए उनहोंने जनमना जातिभेद और मदूति्त्पदूजा
जैसी हानिकारक रुढ़ियों का तनमदू्तलन करनेवाले विशवव्यापी महतवाकांक्षा युकि आर्यधर्म का उ्प्ेश किया । इस श्ेणी के दयानन् यदि हजार वर्ष ्पदूव्त उत्पन्न हुए होते , तो इस देश को ्पराधीनता के दिन न देखने ्पड़ते । इतना ही नहीं , प्रतयुि विशव के एक महान राषट्र के रू्प में भारतवर्ष देदीपयमान होता ।
जानकारी हो कि सवामी दयानंद सरसविी का जनम 12 फरवरी 1824 को गुजरात के काठियावाड़ क्षेत् में ससरि टंकारामें एक हिं्दू ब्ाह्मण ्परिवार में हुआ था । उनका मदूल नाम मदूलशंकर तिवारी था । छोटी बहन और चाचा की हैजा से मृतयु ने दयानंद को जीवन और मृतयु के अर्थ ्पर विचार करने के लिए प्रेरित किया । दयानंद सरसविी ने 1845 से 1869 तक , धार्मिक सतय की खोज में , एक भटकते हुए
ि्पसवी के रू्प में , लगभग ्पच्ीस वर्ष बिताए । उनहोंने भौतिक वसिुओं का तयाग कर दिया और आतम-तयाग का जीवन वयिीत किया , खुद को जंगलों में आधयासतमक गतिविधियों , हिमालय ्पव्तिों में एकांतवास और उत्री भारत के तीर्थ सरलों में समत्प्ति कर दिया । उनहोंने ्पहले दस प्रमुख उ्पतनर्ों की शिक्षाओं को शवेिाशविर उ्पतनर् के साथ भी सवीकार किया , जो वेदों के अधयातम भाग की वयाखया करता है । उनहोंने वेदों की सही वयाखया के लिए आवशयक छह वेदांग ग्ंरों को सवीकार किया जिनमें वयाकरण आदि शामिल हैं । उनहोंने सभी छह दर्शन शासत्ों को सवीकार किया जिनमें सांखय , वैशेषिक , नयाय , ्पिंजलि के योग सूत्र , ्पदूव्त मीमांसा सूत्र , वेदांत सूत्र शामिल हैं । उनहोंने जाति प्रथा , सती प्रथा , मदूति्त ्पदूजा , बाल विवाह आदि का विरोध किया जो वेदों की भावना के खिलाफ हैं ।
उनहोंने कहा कि वणा्तश्म शिक्षा और ्पेशे ्पर आधारित है और अ्पनी ्पुसिक सतयार्थ प्रकाश में , उनहोंने मनुसमृति , गृह्य सूत्र और वेदों के अंश उद्धृत किए हैं जो उनके दावों का समर्थन करते हैं । दयानंद ने ईसाई धर्म और इसलाम के साथ-साथ जैन धर्म , बौद्ध धर्म और सिख धर्म जैसे अनय भारतीय िमषों का भी आलोचनातमक विशलेरण किया । उनकी शिक्षाओं ने सभी जीवित प्राणियों के लिए सार्वभौमिकता की वकालत की , न कि किसी विशेष संप्रदाय , विशवास , समुदाय या राषट्र के लिए । सवामी दयानंद को अ्पने जीवन ्पर कई असफल हतया के प्रयासों का सामना करना पड़ा । 1883 में , जोि्पुर के महाराजा जसवनि सिंह तद्िीय ने सवामी दयानंद को अ्पने महल में रहने के लिए आमंतत्ि किया । 29 सितंबर 1883 की रात को उनहें ्दूि में कांच के छोटे टुकड़े मिलाकर त्पला दिया गया । वह कई दिनों तक बिसिर ्पर पड़े रहे और असहनीय दर्द सहते रहे । 30 अक्टूबर 1883 को उनकी मृतयु हो गई । उनहोंने अजमेर के ्पास भिनाई कोठी में अंतिम सांस ली और उनकी राख उनकी इचछा के अनुसार अजमेर में ऋषि उद्ान में विसर्जित कर दी गई । �
26 flracj & vDVwcj 2023