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दिखाई पड रहरे हैं ।
क्सतारों के आगे जहां और भ़ी हैं ...
दलित समाज को अपनरे साथि जोडनरे की इस आपाधापी में राजनीतिक दलों की ओर सरे जो प्यास किए जा रहरे उससरे एक बात तो साफ है कि दलितों को सिर्फ ्वोट बैंक समझनरे की परंपरा और मानसिकता में वयापक बदला्व आ रहा है । स्थिति यह है कि बिहार में दलित राजनीति करनरे ्वािरे चिराग पास्वान सरे िरेकर महाराष्ट्र में दलितों के सबसरे बड़े नरेता मानरे जानरे ्वािरे आरपीआई सुप्ीमो रामदास आठ्विरे तक की हर ओर पूछ बढ़ रही है । दलितों की नाराजगी मोल िरेनरे का खतरा उठानरे का साहस आज किसी में भी नहीं दिखाई पड रहा है । इसकी सबसरे बडी ्वजह दलगत आससकत सरे
उबर कर और उप — जातीय मतभरेदों को भुलाकर समूचरे दलित ्वग्ष का एकजुट होकर खड़े होनरे की दिशा में आगरे बढ़ना और दलों के दलदल में फंसनरे के बजाय अपनरे हितों को प्राथमिकता दरेतरे हुए खुिरे दिल सरे नरेतृत्व का चयन करना ही है । हालांकि अभी दलित समाज का एक ्वग्ष आज भी भा्वनातमक और परंपरागत मानसिकता सरे उबर नहीं पाया है और समग् दलित सममान के लिए आवश्यक एकजुटता का हिससा नहीं बन पाया है िरेलकन ऐसरे लोगों की तादाद लगातार कम हो रही है और समग्ता में दलित स्वाभिमान को सर्वोच्च प्राथमिकता दरेनरे की दिशा में समाज लगातार आगरे बढ़ रहा है । इसी के नतीजरे में दलितों के मौजूदा स्वर्णिम युग का आरंभ भी हुआ है जिसमें दरेश का प्िानमंत्री कुंभ के मरेिरे में उनके पां्व भी पखारता है और सबसरे बड़े ल्वपक्ी दल
की शीर्ष संचालकों में शामिल नरेत्री उनके इलाके में झाड़ू भी लगाती है । उनके लिए तमाम योजनाएं भी केन्द्र ्व राजय सरकारें अलग सरे बना रही हैं और उनके सांस्कृतिक स्वाभिमान को आसमान पर िरे जानरे के लिए डॉ . आंबरेडकर के पंचतीथि्ष का ल्वकास करनरे सरे िरेकर उनके जन्म लद्वस को राष्ट्रीय अ्वकाश घोषित करनरे भर की ही पहल नहीं की जा रही बल्क परेरियार , रामानुजाचार्य , साल्वत्री बाई फुिरे सरीखी ल्वभूतियों के सममान में इजाफे का भी हर संभ्व प्यास किया जा रहा है । जरूरत है कि दलित समाज की यह जागरूकता , चरेतना ्व स्वाभिमान न सिर्फ बरकरार रहरे बल्क बढ़ती भी रहरे ताकि इस स्वर्णिम दौर का लाभ उठाकर सिर्फ बराबरी का हक हासिल करनरे के बजाय ्वरे समाज को नरेतृत्व ्व दिशा प्दान करनरे का अधिकार हासिल करनरे में भी कामयाबी हासिल करें ।
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