eMag_May 2021_Dalit Andolan | Page 29

सर्वप्रथम ्यह मराठी साक्हत्य के रूप में आ्या । उसके बाद तेलगु , कन्नड़ , मल्यालम और ताक्मल में आ्या । बाकी भाषाओं में 20 वीं सदी के अंक्तम दो दशकों में आ्या , लेक्कन मल्यालम दक्लत क्चिंतक करंचिाइललय्या जब तक ्यह घोषणा करते हैं क्क कुछ ही वरषों बाद देखना , अंग्ेजी भारत की राषट्भाषा बन जा्यगी ,
जब भगवान बुद्ध आये तब उन्होंने ब्ाह्मणवादी व्यवस्ा से ग्ान को उच्च वणणों के शिकं जे से मुक्त कराया था । आज भी दलित इसी कार्य को करने की कोशिश कर रहे हैं । इसके लिए संविधान में इन्ें संवैधानिक शक्ति भी प्ाप्त है । यद्यपि मणिपुर में शेष भारत की तरह , यहां न तो वर्ण-व्यवस्ा की विकृ तियां पहले थीं , न ही आज है ।
और क्हत्दू-धर्म नष्ट हो जा्यगा , वेद , उपक्नरद तथा गीता से प्रेरणा प्रापत करने वाले साक्हत्य के सथान पर आंबेडकरवादी दक्लत साक्हत्य सर्वव्यापी हो जा्यगा , तब वे वासतव में दक्लत- क्वमर्ष को सवाथ्य और घृणा की राजनीक्त का क्शकार बनाने की कोक्शश करते हैं । ऐसे क्चिंतक दक्लत- क्वर्यक साक्हत्य को आधुक्नक क्वमर्श के बजा्य क्हदू-क्वमर्श के रूप में प्रसतुत करते हैं । बावजूद ्यह सत्य है क्क आंबेडकर का साक्हत्य , दक्लत-मुशकत की खोज , ज्ञान की मुशकत के रूप में करते हैं । जब भगवान बुद्ध आ्ये तब उन्होंने रिाह्मणवादी व्यवसथा से ग्यान को उच् वणषों के क्शकरंजे से मुकत करा्या था । आज भी दक्लत इसी का्य्य को करने की कोक्शश कर रहे हैं । इसके क्लए संक्वधान में इन्हें संवैधाक्नक शशकत भी प्रापत है । ्यद्यक्प मक्णपुर में शेष भारत की तरह , ्यहां न तो वर्ण-व्यवसथा की क्वककृक्त्यां पहले थीं , न ही आज है ।
मक्णपुरी समाज में 13 वीं , 14 वीं सदी में मक्णपुर में वैषणव धर्म का जब प्रवेश हुआ , तब ्यहां सर्वप्रथम " जाक्त-पाक्त पूछ़े नहीं को्य ” , ” हरि को भजे सो हरि के हो्य ” मानने वाले रामानंदी समप्रदा्य आ्ये । लगता है , मक्णपुरी
समप्रदा्य को ्ये रामानंदी भा ग्ये , तभी ्यहाँ वैषणव धर्म का प्रचिार हो सका । इतना ही नहीं , बंगाल के गौड़ी्य समप्रदा्य को भी ्यहां ़िलने- ़िरूलने का मक्णपुर समप्रदा्य ने भरपूर माहौल क्द्या । उसके प्रचिारकों ने ्यहां जाक्त-व्यवसथा चिलाने का भी प्र्यास क्क्या । मगर मक्णपुरी समाज अपने संसकार में इतने प्रबल थे क्क ्यहां जाक्तगत भेदभाव जड़ नहीं जमा सका । मक्णपुर की तरह अरूणाचिल प्रदेश , क्मजोरम , मेघाल्य और नागालैंड में भी जाक्त-भेद न होने के कारण , वहां के साक्हत्य में दक्लत-क्वमर्श नहीं है ।
क्नषकर्षत : ्यह कहा जा सकता है क्क भारती्य साक्हत में दक्लत क्वमर्श के व्यापक प्रचिलन का मूल कारण जाक्त और वर्ण पर आधारित सामाक्जक भेदभाव रहा है । क्जस कारण बीसवीं सदी के अंत तक दक्लत वर्ग समाज में सर उठाकर खुद को दक्लत-वर्गीय कहने का भी क्हममत नहीं उठा नहीं पाता था । लेक्कन जब जाक्त प्रथा के खोखले आदशषों व संस्कृक्त को वे समझने लगे , तब इस व्यवसथा के क्वरुद्ध खड़़े होने की क्हममत करने लगे ।
आज दक्लत क्वर्यक साक्हत्य का उभार भारती्य समाज व्यवसथा के परिवर्तन का द्योतक ही नहीं , बशलक एक प्रकार से सवर्ण समाज पर ्वेत-परि सा लगता है । ्यक्द देखा जा्य , तो दक्लत चिेतना को इस जीवंत सतर के तक पहुंचिाने के क्लए महातमा ज्योक्त राव ़िुले ( सन 1890 एवं सावित्री वाई ़िुले 1831 ) जैसे समक्प्यत दंपक्त का ्योगदान क्वसमृत नहीं क्क्या जा सकता । इन्होंने 1848 में पहली कत््या पाठशाला खोली । 1851 में अछूतों के क्लए पहली पाठशाला खोली और 1864 में क्वधवा क्ववाह समपन्न करा्या । सावित्री वाई ़िुले को दक्लत समाज की पहली भारती्य क्शक्षिका बनने का गौरव प्रापत है । कुल क्मलाकर देखा जा्य , तो दक्लत-समाज के सभी तबके के लोगों का सवर , मुख्य धारा से अलग रहने की छ्टप्टाह्ट अक्भव्यशकत करता है । हम उममीद कर सकते हैं , क्क दक्लत चिेतना का ्यह संघर्ष एक क्दन उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के क्लए बाध्य करेगी । �
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