कियाः- विद्ा तपशच योनिशच एतद् ब्ाहण कारकम् । विद्ा तपोभयां यो हीनो जाति ब्ाहण एव
सः ।। 4 / 1 / 48 ।।
अर्थात् ब्ाहणतव के तीन कारक हैं – 1 ) विद्ा , 2 ) तप और 3 ) योनि । जो विद्ा और तप से हीन है वह जातया ( जनमना ) ब्ाहण तो है ही ।
ऋषि दयाननद ने प्रतिखंडन में मनु का यह
शलोक प्रसतुत किया- यथा काषठमयो हसती , यशचा चर्ममयो म्रगः । यशच विप्रोऽनधीयानसत्यसते नाम बिभ्रति ।। मनु० ( 2,157 ) अर्थात् जैसे काषठ का क्टपुतला हाथी और चमड़े का बनाया म्रग होता है , वैसे ही बिना पढ़ा हुआ ब्ाहण होता है । उकत हाथी , म्रग और विप्र ये तीनों नाममात् धारण करते हैं
ऋषि दयाननद से पूर्व और विशेष रूप से मधयकाल से ब्ाहणों के अतिरिकत सभी वर्णसि वयसकतयों को शूद्र समझा गया था , अतः कमशः मुगल और आंगल काल में महाराषट् केसरी छत्पति शिवाजी महाराज , बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड और कोलहापुर नरेश राजर्षि शाहू महाराज को उपनयन आदि वेदोकत संसकार कराने हेतु आनाकानी करनेवाले ब्ाहणों के कारण मानसिक यातनाओं के बीहड़ जंगल से गुजरना पड़ा था ।
ऋते ज्ानान्नमुक्तः अर्थात् ज्ानी हुए बिना इनसान की मुसकत संभव नहीं है । अतः ऋषि दयाननद का दलितोद्धार की द्रसष्ट से भी सब से महान् कार्य यह था कि उनहोंने सबके साथ दलितों के लिए भी वेद-विद्ा के दरवाजे खोल दिए । मधयकाल मे सत्ी-शूद्रों के वेदाधययन पर जो प्रतिबंध लगाये गए थे , आर्य समाज के संसिापक महर्षि दयाननद ने अपने मेधावी कांलतकारी चिंतन और वयसकततव से उन सब प्रतिबंधों को अवैदिक सिद्ध कर दिया । ऋषि दयाननद के दलितोद्धार के इस प्रधान साधन और उपाय में ही उनके द्ारा अपनाये गए अनय सभी उपायों का समावेश हो जाता है , जैसे-
1 ) दलित सत्ी-शूद्रों को गायत्ी मंत् का
उपदेश देना । 2 ) उनका उपनयन संसकार करना । 3 ) उनहें होम-हवन करने का अधिकार प्रदान करना । 4 ) उनके साथ सहभोज करना । 5 ) शैलक्क संसिाओं में शिक्ा वसत् और खान पान हेतु उनहें समान अधिकार प्रदान करना । 6 ) ग्रहसि जीवन में पदार्पण हेतु युवक-युवतियों के अनुसार ( अंतरजातीय ) विवाह करने की प्रेरणा देना आदि ।
डा . आंबेडकर ने भी सवीकार किया है कि- ‘‘ सवामी दयाननद द्ारा प्रतिपादित वर्णवयवसिा बुद्धि गमय और निरूपद्रवी है ।”
डा . बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विशवलवद्ालय के उपकुलपति , महाराषट् के सुप्रसिद्ध वकता प्राचार्य शिवाजीराव भोसले जी ने अपने एक लेख में लिखा है ,‘ राजपथ से सुदूर दुर्गम गांव में दलित पुत् को गोदी में बिठाकर सामने बैठी हुई सुकनया को गायत्ी मंत् पढ़ाता हुआ एकाध नागरिक आपको दिखाई देगा तो समझ लेना वह ऋषि दयाननद प्रणीत का अनुयायी होगा ।’
आर्यसमाजी न होते हुए भी ऋषि दयाननद की जीवनी के अधययन और अनुसंधान में 15 से भी अधिक वर्ष समर्पित करने वाले बंगाली बाबू देवेंद्रनाथ ने दयाननद की महत्ा का प्रतिपादन करते हुए लिखा है ,‘ वेदों के अनधिकार के प्रश् ने तो सत्ी जाति और शूद्रों को सदा के लिए विद्ा से वंचित किया था और इसी ने धर्म के महंतों और ठेकेदारों की गलद्यां सिालपत की थीं , जिनहोंने जनता के मससतषक पर ताले लगाकर देश को रसातल में पहुंचा दिया था । दयाननद तो आया ही इसलिए था कि वह इन तालों को तोड़कर मनुषयों को मानसिक दासता से छुड़ाए ।’ ऋषि दयाननद के काशी शासत्ाि्व में उपससित पं . सतयव्रत सामशमी ने भी सपष्ट रूप से सवीकार करते हुए लिखा है ,‘‘ शूद्रसय वेदाधिकारे साक्ात् वेदवचनमपि प्रदर्शितं सवालम दयाननदेन यथेमां वाचं ….. इति ।”
डा . चनद्रभानु सोनवणे ने लिखा है ,‘ मधयकाल में पौराणिकों ने वेदाधययन का अधिकार ब्ाहण पुरुष तक ही सीमित कर दिया था , सवामी दयाननद ने यजुवजेद के ( 26 / 2 ) मंत् के आधार
पर मानवमात् को वेद की कलयाणी वाणी का अधिकार सिद्ध कर दिया । सवामीजी इस यजुवजेद मंत् के सतयाि्वद्रष्टा ऋ़षि हैं ।’
ऋषि दयाननद के बलिदान के ठीक 10 वर्ष बाद उनहें शद्धांजलि देते हुए दादा साहेब खापडडे ने लिखा था ,‘ सवामीजी ने मंदिरों में दबा छिपाकर रखे गए वेद भंडार समसत मानव मात् के लिए खुले कर दिये । उनहोंने हिंदू धर्म के वृक्ष को महद् योगयता से कलम करके उसे और भी अधिक फलदायक बनाया ।’
‘ वेदभाषय पद्धित को दयाननद सरसवती की देन ’ नामक शोध प्रबंध के लेखक डा . सुधीर कुमार गुपत के अनुसार ‘ सवामी जी ने अपने वेदभाषय का हिंदी अनुवाद करवाकर वेदज्ान को सार्वजनिक संपलत् बना दिया ।’
पं . चमूपति जी के शबदों में ‘ दयाननद की द्रसष्ट में कोई अछूत न था । उनकी दयाबल-बली भुजाओं ने उनहें अस्पृशयता की गहरी गुहा से उठाया और आर्यतव के पुणयलशखर पर बैठाया था ।’
हिंदी के सुप्रसिद्ध छायावादी महाकवि सूर्यकांत लत्पाठी निराला ने लिखा है ‘‘ देश में महिलाओं , पतितों तथा जाति-पांति के भेदभाव को लम्टाने के लिए महर्षि दयाननद तथा आर्यससमाज से बढ़कर इस नवीन विचारों के युग में किसी भी समाज ने कार्य नहीं किया । आज जो जागरण भारत में दीख पड़ता है , उसका प्रायः समपूण्व शेय आर्य समाज को है ।’
महाराषट् राजय संस्कृति संवर्धन मंडल के अधयक् मराठी विशवकोश निर्माता तर्क-तीर्थ लक्मण शासत्ी जोशी ऋषि दयाननद की महत्ा लिखते हुए कहते हैं , ‘ सैकड़ों वषषों से हिंदुतव के दुर्बल होने के कारण भारत बारंबार पराधीन हुआ । इसका प्रतयक् अनुभव महर्षि सवामी दयाननद ने किया । इसलिए उनहोंने जनमना जातिभेद और मूर्तिपूजा जैसी हानिकारक रुढ़ियों का निर् मूलन करनेवाले विशववयापी महतवाकांक्ा युकत आर्यधर्म का उपदेश किया । इस शेणी के दयाननद यदि हजार वर्ष पूर्व उतपन्न हुए होते , तो इस देश को पराधीनता के दिन न देखने पड़ते । इतना ही नहीं , प्रतयुत विशव के एक महान् राषट् के रूप में भारतवर्ष देदीपयमान होता ।’ �
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