eMag_March2023_DA | Page 39

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काक्त्यकेय शर्मा

दलितों के मुद्े हाशिए पर दलितों के भगवान जीवंत , नेतृत्व मृत ? दलित समाज के राजनीतिक

नेिकृत्व सवालदों में

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त्र प्रदेश की चुनावी मंथन से एक चीज़ साफ होती है कि भारत में दलित राजनीति बौद्धिक सतर पर सिम्ट कर रह गयी है । दलित राजनीति आज ्टीवी स्टूडियो , कक्ाओं , किताबों और एनजीओ सेक्टर तक सीमित है । उत्र प्रदेश विधान सभा चुनाव में राजनीति हिंदुतव की पिच से निकल कर पिछड़ी जातियों की पिच पर पहुंच गयी है लेकिन इसमें दलित नेत्रतव गायब है । बात पिछड़ों की है लेकिन दलित चेहरे नहीं है । घेराबंदी अतिपिछड़ों को लेकर है लेकिन फैसले की ्टेबल पर ये या तो दिखते नहीं और होते हैं तो महज़ स्टेम की तरह । मायावती तथाकथित दलित नेता हैं लेकिन उनका प्रदर्शन पिछले 2 चुनावों में बहुत खराब रहा है । दलित मुद्ों पर उनहें कम ही बोलते सुना जाता है । उसके ऊपर कई पाल्ट्डयों का आरोप भी है कि वो जिस तरह से पसशचम उत्र प्रदेश में विधान सभा के ल्टक्ट बां्ट रही हैं वो केवल बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा है ।
डॉ आंबेडकर की बौद्धिक आलोचना बिना विवाद के असंभव आज महातमा गांधी और जवाहरलाल नेहरू
की आलोचना करना आसान है लेकिन डॉ आंबेडकर की बौद्धिक आलोचना बिना किसी विवाद का हिससा बने नहीं हो सकता है । उनकी मूर्तियां भारत के हर गांव में हैं लेकिन उस गांव में दलित नेत्रतव नहीं होगा । सावरकर के बयानों को लेकर भरी भरकम बहस हो
जाती है लेकिन डॉ आंबेडकर के विचार पर कोई विवाद नहीं होता है । बीजेपी भी अंबेडकर के सामने नतमसतक है जबकि उनके विचार हिनदू धर्म पर आरएसएस और बीजेपी से अलहदा थे । आज उत्र प्रदेश में चंद्रशेखर यानी रावण बहन मायावती के बाद दूसरे दलित नेता माने जाते हैं लेकिन उनकी पहली कोशिश समाजवादी पार्टी से गठबंधन की थी और दूसरी बीजेपी को हराने की । लेकिन उनकी योजना साकार नहीं हो सकी । पंजाब में चन्नी को कांग्ेस ने दलित मास्टरकार्ड की तरह से पेश किया था लेकिन उनकी खुद की राजनीति मुखयमंत्ी बनने से पहले दलित राजनीति से अलग थी । बीजेपी , कांग्ेस , सपा , आरजेडी , एलजेपी में दलित नेता हैं लेकिन इनमें से कोई खुद को पूरे उत्र भारत का दलित नेता नहीं कह सकता है । महाराषट् में दलित राजनीति लेफ्ट पॉललल्टकस से जुड़ कर सीमित हो गयी है और बची खुची राजनीति को बीजेपी ने माओवाद का इलज़ाम लगा कर तिरस्कृत कर दिया है । आज़ादी के बाद डॉ आंबेडकर को अपने राजनैतिक जीवन को ज़िंदा रखने के लिए काफी जद्ोजहद करनी पढ़ी थी । वो लोक सभा का चुनाव भी हार गए थे और बाद में बौद्ध धर्म अपना लिया था । लेकिन इस दौरान संविधान तैयार करने के अलावा उनहोंने दलित राजनीति की वैचारिक और राजनैतिक प्रषठभूमि तैयार की थी । लेकिन डॉ आंबेडकर के बाद इस प्रष्टभूमि पर काम कांशीराम ने किया लेकिन उसपर बौद्धिक तसदीक़ नहीं होती है । दलित समाज के पास आज़ादी के बाद सबसे बड़ा आइकॉन था । ओबीसी समुदाय के पास साथ के दशक में चौधरी चरण सिंह , जैसे बड़े नेता और राम
मनोहर लोहिया जैसे विचारक मिले जिसके कारण उत्र के राजयों में नया नेत्रतव पैदा हो पाया ।
दलितों के नेतृत्व में ऊं ची जातियां आगे रहीं
लेकिन दलित समाज में ऐसा नहीं हुआ । उनकी राजनीति बड़ी पाल्ट्डयों के भीतर सीमित रही । बीएसपी एक अपवाद है । कांग्ेस के बाद राषट्ीय सतर पर दलित वो्ट बीजेपी में शिफ्ट हुआ । 1980 तक कांग्ेस को दलितों का वो्ट ऊंची जातियों के साथ जाता रहा । दलितों के नेत्रतव में ऊंची जातियां आगे रहीं । दलित राजनीति देश में आदिवासियों की तरह नेत्रतव में राजनैतिक विकलप नहीं बन पायी । विकलप के रूप में ओबीसी उभर आएं । पहले ओबीसी में डोमिनें्ट ओबीसी ने मलाई खाई जिसको लेकर अब खासा बवाल मचा है । लेकिन विकलप इनके हाथ से बाहर नहीं निकला कयोंकि अब राजनैतिक नेत्रतव की लड़ाई ओबीसी में साइज में छो्टी और बड़ी जातियों के बीच ही हैं । यही कारण है कि ऊंची जातियों के दबदबे के बाद अब भारत की राजनीति में ओबीसी का दबदबा है । 2022 में उत्र प्रदेश के चुनाव में भी दलित नेत्रतव गायब है । बिहार विधानसभा चुनावों में भी दलित नेत्रतव गायब था । यही हाल देश के लगभग सभी राजयों में हैं जहा दलित नेत्रतव के नाम पर केवल दलित मंत्ी हैं । चन्नी के चेहरे को दलित मुखयमंत्ी के नाम पर बेचा जा रहा है लेकिन कांग्ेस ने पंजाब में पांच साल के कार्यकाल में दलित समाज के हित को धयान में रखकर कया और कितना काम किया इसके बारे में चुपपी है , खामोशी है । �
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