lekt
आदिवासी-संस्कृ ति
की है विशिष्ट पहचान
राठोड़ सुरेश
सं वरसकतत्व और िरी्वन के लिए साक्ात
सकृलत का अर्थ चिंतन तथा कलातमक सृजन करी ्वह प्रक्रिया होतरी है जो मान्व
उपयोगरी न होते हुए उसे समृद्ध बनाने ्वालरी है । संसकृलत में मूलर , मानरता , चेतना , ल्वश्वास , ल्वचार , भा्वना , ररीलत-रर्वाज , भाषा ज्ान , कला धर्म , जादू-टोना आदि के ्वह समग् मूर्त , अमूर्त स्वरूप शामिल होते हैं जिसे मान्व सृजित , भौतिक जगत से महत्व ए्वं सार्थकता प्रा्त करता है । भारतरीर संसकृलत को परिभाषित करना या उसे संलक््त रूप में समझना अतरंत कठिन है करोंकि भारत के लंबे इतिहास में उसकरी संसकृलत पर अनेक प्रभा्व पड़ते रहे हैं । जिसके कारण उसका रूप हरी परर्वलत्यत हो चुका है । प्रायद्वीप का यह जंबूद्वीप अनेक जातियों , धर्म तथा संसकृलतरों का संगम सथल रहा है । इनहीं में से एक है आलद्वासरी-संसकृलत ।
आलद्वासरी-संसकृलत करी अपनरी एक भिन्न और ल्वलशषट पहचान है । इस संसकृलत के अंतर्गत समानता , बंधुता करी भा्वना , उदात्-ल्वचार , समता और सबसे विचित्र लक्र यह है कि प्रकृति के
कोख से पैदा होकर उससे ल्वलशषट नैकट् संबंध बनातरी है । इसमें प्रकृति-प्रेम विद्यमान है जो अनर संसकृलतरों से इसे अलग ए्वं ल्वलशषट पहचान प्रदान करता है । आलद्वासरी िरी्वन में मनुषर- िरी्वन प्राकृतिक ए्वं साधारण है । उनका दृसषटकोण उपयोगिता्वादरी और ल्वचारधारा ‘ जिओ और िरीने दो करी है ’। उपयोगिता के साथ-साथ उनकरी कार्य-चेतना सामूहिक-सहभागिता , सहयोगिता ए्वं अनुशासन पर टिकरी हुई है । प्रकृति का नियम है कि ऐसरी व्यवसथा जाति , के मानसिक ए्वं स्वाभाल्वक गठन को प्रभाल्वत करतरी है । आलद्वासरी-चेतना के अंतर भा्व में प्रकृति के नियम के अंतर्गत संग्ह का उपेक्ा , तराग , प्रतिरोध , दया , समाधि का महत््वपूर्ण सथान है । आलद्वासरी समाज के िरी्वन करी आ्वशरकताएं सरीलमत हैं । ्वसतु-धन , संग्ह करी भा्वना इनकरी संसकृलत में नहीं पाररी जातरी है । यह प्रकृति के सहचर और पुजाररी हैं । इनके धार्मिक-सथल कोई मंदिर- मससिद या ल्वलशषट सथान न होकर खुला आकाश होता है । ्वह कहीं भरी अपनरी उपासना-आराधना पूजा पाठ कर सकते हैं । आलद्वासरी संसकृलत ए्वं प्रकृति में गहरा आत्मीय संबंध है । तभरी तो प्रकृति
प्रदत् उत्सव को आलद्वासियों ने अपने िरी्वन से जोड़ लिया है । जबकि सभर कहे जाने ्वाले ल्वकसित संसकृलत से प्रकृति का संबंध संघर्ष का रहा है । फलतः ्वह प्रकृति का दोहन चाहते हैं । अब रक्र का ल्वचार महज भौतिक उपयोगिता्वादरी सार है । ्वत्यमान युग में इनका संबंध के्वल भाररी ्वैज्ालनक ल्वकास , औद्ोलगक और ्वाणिजर का है ।
बिरसा मुंडा और कोमरम भरीम पर आधारित साहितर में आलद्वासरी समाज , संसकृलत ए्वं संघर्ष का लचत्र हुआ है । भारत में समग् रूप से 450 से अधिक जनजाति लन्वास करतरी हैं , जिनमें मुंडा और गोंड प्रमुख हैं । बिरसा मुंडा के ‘ मुंडा ’ समुदाय और कोमरम भरीम के ‘ गोंड ’ समुदाय दोनों करी संसकृलत में समानता है । इन दोनों का साहितर मुंडा समुदाय और गोंड समुदाय पर आधारित है । भारत में मुंडा और गोंड जाति में भरी अनेक उपजाति हैं और उनकरी सामाजिक , सांसकृलतक , धार्मिक आसथाएं तथा संसकृलत में कुछ समानता होते हुए भरी भिन्नता हैं । इन आलद्वासियों करी संसकृलतरों को नषट करने का प्रयास कई सालों से होता आ रहा है । फिर भरी यह संसकृलत िरील्वत है । अनेक परिससथलतरों करी चुनौतियों का सामना करते हुए मुंडा और गोंड समाज करी संसकृलत िरील्वत है । उनके गरीत , तरौहार उनकरी चेतना को बनाते हैं ।
भूगोल्वेत्ाओं के अनुसार छोटा नागपुर भारत करी सबसे प्राचरीन भूमि है । मुंडा इस प्रदेश में रहने ्वाले हैं इसलिए मान्वशासत्री इनहें अधिक प्राचरीन आलद्वासरी बताते हैं । पुराणों तथा समृलतरों में दोनों जातियों का उललेख मिलता है । और इनका रहन-सहन कई हजार ्वर्ष पुराना है । भारत में अंग्ेिों के आगमन से पहले आलद्वासरी हिंदुओं में गिने जाते थे तथा यह अपने प्रदेशों में शासन करते थे । दोनों समाज आज भरी असभर ससथलत में िरी रहे हैं । लज्ा लन्वारण हेतु कमर में एक कपड़ा लपेट लेते हैं । भारत में भारतरीर जनजातियों में मुंडा करी संखरा अधिक है ्वह मुखर रूप से झारखंड , छत्तीसगढ़ , बिहार , उड़ीसा , मधर प्रदेश , पसशचम बंगाल आदि क्ेत्ों में लन्वास करते हैं । �
50 Qd » f ° f AfaQû » f ³ f ´ fdÂfIYf twu 2021