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लक्षण को सम्या मानने की भूल तो नहीं कर रहे हैं । मेरा मानना छुआ-छूत लक्षण है और सम्या कहीं और छुपा हुआ है । एकबारगी मैं अपने से पूर्व हुए विचिारकों की बात को सही मान लेता हूँ कि वर्ण वयि्थिा ही छुआ-छूत की िड़ है तब शूद्र वर्ण में सभी के साथि छुआ-छूत होता । परंतु ऐसा नहीं है । ्पषट है कि वर्ण वयि्थिा का छुआ-छूत से कोई लेना देना नहीं है । जब तक लक्षण को सम्या मान समाधान खोजा जाएगा तब तक सम्या का हल मिलेगा नहीं ।
तब फिर इसका समाधान कया है ? छुआ-छूत किसी भी स्थिति में ्िीकार्य नहीं है । तब कैसे होगा समाधान ? समाधान वहीं मिलेगा जहाँ से इसकी उतपतत् माना जा रहा है । हमें अपने ग्रंथों को गहराई से पढ़ना पड़ेगा और समझना पड़ेगा कि वा्ितिक वर्ण वयि्थिा कया है ? वर्ण को जाति शबद का पर्यायवाचिी समझना बहुत बड़ी गलती है । इसके अलावा इस ्लोक से समझने का प्यास करते हैं : जनमना जायते शूद्रः , सं्कारात् भवेत् तद्िः | वेद-पाठात् भवेत् विप्ः , रिह्म जानातीति
रिाह्मणः | अथिा्शि जनम से सभी शूद्र होते हैं , सं्कारित
होकर तद्ि बनते हैं , वेद पाठ कर विप् बनते हैं और रिह्म को जानकर रिाह्मण बनते हैं ।
यह ्लोक ्पषट कर देता है कि कोई भी जनम से रिाह्मण नहीं है । रिाह्मण होना एक गुण है जिसे पुरुषाथि्श से अर्जित करना पड़िा है । जिन ग्रंथों में इतनी सुनदर बात कही गई हो वह किसी के साथि भेदभाव कर ही नहीं सकता । जाहिर है कि इनहें समझने में कहीं न कहीं चिूक हो रही है । समझने में हुई चिूक को इस ्लोक से समझते हैं : पृतथिवयां यानी तीथिा्शतन तानी तीथिा्शतन सागरे । सागरे सर्वतीथिा्शतन पादे विप््य दक्षिणे ।। अथिा्शि पृथिी में जितने भी तीथि्श हैं सब सागर में भी हैं और सागर के सभी तीथि्श विप् के दक्षिण में कदम रखने में हैं अथिा्शि विप् की सरलता में हैं अथिा्शि जब आप सरल हो जाते हैं तब सारे तीथि्श मिल जाते हैं ।
दक्षिण शबद के दो अथि्श हैं दक्षिण दिशा और दूसरा अथि्श है सरलता । इस बात की पुशषट सं्कृि शबदकोश से किया जा सकता है । इसका दूसरा प्माण यह है कि दक्षिण शबद का सपिमी एक िचिन रुप ‘ दक्षिणे ’ का प्योग किया गया है – पादे विप््य दक्षिणे । दक्षिणे का अथि्श है दक्षिण में अथिा्शि सरलता में । यदि इसका अथि्श वा्िि
में दाएँ पैर में होता तो कर्मधारय समास का प्योग कर ‘ दक्षिणपादे ’ शबद का प्योग होता न कि ‘ दक्षिणे पादे ’। इसके अलावा पूि्शििजी ्लोक में हमने देखा विप् और रिाह्मण दो अलग अलग अवस्था है , विप् का अथि्श रिाह्मण कदापि नहीं है । सं्कारित होकर तद्ि बनते हैं और वेद पढ़कर विप् बनते हैं , रिह्म को जानकर रिाह्मण बनते हैं ।
अब जब दोनों ्लोकों को हम एक साथि वि्लेषण करते हैं तो इसका वा्ितिक अथि्श कुछ इस तरह ्पषट होता है – वेद पढ़कर जो ज्ानी है वह विप् है परंतु ज्ानी होकर वह सरल न होकर अहंकारी हो जाता है तो वह रिाह्मण नहीं हो सकता । ज्ानी जब अपने कदम सरलता की ओर उठाता है तब वह रिह्म को जान सकता है और रिाह्मण बनता है । यही इसका वा्ितिक और सही अथि्श है । इन सबसे ्पषट है कि वर्ण वयि्थिा कभी भी जनम आधारित नहीं थिा । यह गुणों पर आधारित कर्म विभाजन पर आधारित थिा । और जब यह वयि्थिा अपने वा्ितिक अर्थों के साथि लागू होगा तब न केवल छुआ- छूत की सम्या का समाधान होगा वरन बेरोजगारी जैसी सम्या का भी समाधान मिलेगा । �
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