eMag_July 2023_DA | Page 16

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सीमित कर दे । आरक्ण की यह वयवसथा लागू करने की मूल मंशा यह थी कि दलित समाज का प्रतिनिधि ही सही अथवो में दलित समाज की समसयाओं , उनके हितों , पीड़ाओं और चिंताओं को समझ सकता है और उनके समाधान निवारण की दिशा में निषठा और ईमानदारी से पहल कर सकता है । सवाल यह पैदा होता है कि कया दलित नेतृतव ऐसा कर पा रहा है ? इसका जवाब खोजने पर जो हकीकत सामने आती है , वह बेहद निराश करने वाली है । मिसालें एक नहीं अनेक हैं , जिनके आलोक में इस हकीकत को जांचा , परखा और देखा जा सकता है । कहना गलत नहीं होगा कि दलित नेतृतव सिर्फ दलितों के सहारे निज विकास का वैभवशाली ग्ाि रचने में कामयाब हुआ है ।
दलितों के हितों-हकों और समग् विकास की उसे किंचित परवाह नहीं है । दलितों के मसीहा माननीय कांशीराम ने दलित आंदोलन की धार पैनी कर दलितों को विकास की डगर पर आगे बढ़ने की जुझारू मिसाल पेश की । उनकी धारदार पैनी रणनीति के फलसवरूप बसपा देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश के सत्ता सिंघासन तक पहुंचने में कामयाब हुई । यह कांशीराम के रणनीतिक कौसल का ही कमल था कि पहले उनहोंने गठबंधन की नीति अपनायी और फिर आगे चलकर अकेले दम पर बसपा ऐतिहासिक जीत का डंका बजाते हुए सत्ता पर आसीन होने में कामयाब रही । तथयों के आलोक में देखा जाये तो 1991 में 9.4 फीसदी वो्ट हासिल कर राजय सतर पर जहां बसपा ने राजनीति में अपनी प्रतिभागिता दर्ज करायी थी , उसी बसपा ने 2007 में 30.7 फीसदी वो्ट लेकर भारी बहुमत से अपनी विजय का परचम लहराया था । बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपनी विविध आयामी कामयाबी को रेखांकित किया । नौकरशाही और सूबाई परिदृ्य पर दलितों की उपशसथलत और पहचान को बढ़ावा देने की रणनीति को भी उनहोंने अमली जामा पहनाया । दलितों के राजनीतिक और आर्थिक कद को भी उनहोंने बढ़ाया , लेकिन आम दलितों के हालत में कोई खास फर्क नहीं आया ।
सत्ताप्रसथ से लोकलुभावन किये गए अनेक प्रयासों के बावजूद भूमि और मजदूरी के झगड़ों में कारगर भूमिका निभाने और असमानता -गरीबी निवारण की नीतियों को अमलीजामा पहनाने में बसपा विफल रही । प्रचंड बहुमत से सत्ता में आयी बसपा को 2012 के विधानसभा चुनाव में पराजय का मुंह देखना पड़ा ।
दलित नेतृतव के मूल सिद्धांत में आये बदलावों का ही नतीजा कहा जायेगा कि बसपा संसथापक कांशीराम के दौर के कई जुझारू और भरोसेमंद दलित नेता बसपा से बहार कर दिए गए और कुछ असंतुष्ट हो कर पार्टी से विमुख हो गए । राजनीतिक लव्लेरकों का मानना है कि जाति विशेष के हित साधन और पार्टी विशेष के अहम के कारण 2017 के उत्तर प्रदेश के बिधानसभा चुनाव में भाजपा की प्रचंड जीत और बसपा की शर्मनाक पराजय हुई । इसके मूल में गैर जा्टव दलित जातियों द्ारा बसपा को जातवो की पार्टी कहकर भाजपा को वो्ट देने का सच निहित है । देखा जाये तो जातिगत रोग से लगभग सभी राजनीतिक पाल्टटियां ग्सत
हैं । भाजपा बेशक सबका साथ-सबका विकास का अहसास करा रही है । निश्चत ही उसे इस संकलप सूत् का राजनीतिक लाभ भी हासिल हुआ है ।
वैसे देखा जाये तो यह बात सच ही लगती है कि दलितों के हितों की लड़ाई लड़ने के मोचदे पर तैनात राजनीतिक दल बाबा साहब अमबेडकर आंबेडकर के मूलभूत सिद्धांत से भ्टक गए हैं । बाबा साहब अमबेडकर का दलितों का समग् विकास और एक समरस भारत बनाने का सपना था । इसको मूर्त रूप प्रदान करने के लिए उनहोंने पूरे मनोयोग के साथ एक सामाजिक रिांलत का सूत्पात् भी किया । हिनदू मुशसलम एकता के परिप्रेक्य में डॉ अमबेडकर का नजरिया किसी भ्रम का शिकार नहीं है । समरसता के प्रति उनके विशेष लगाव का ही इसे घोतक कहा जायेगा कि मुशसलम कट्टरपंथियों के विरुद्ध उनका रुख बेहद कठोर था । डॉ अमबेडकर के समरस भारत में सनदभखा में राषट्ीय सवयं सेवक संघ की भूमिका को भी कदापि नाकारा नहीं जा सकता है । डॉ अमबेडकर और डॉ केशव बलिराम
16 tqykbZ 2023