eMag_Feb2022_DA | Page 25

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हैं ! कुछ गुट को ्यह फैसला पसंद नहीं आता है और आंदोलन में विभाजन भी हो जाता है और बाद में आंदोलन का पराभव भी हो जाता है । जब अन्ना आंदोलन के गर्भ से निकलकर आम आदमी पाटटी बनी तो उसमें भी विभाजन हुआ और भारत के कई सामाजिक संगठनों के लोगों के लिए वह आकर्षण का केंद्र बन ग्या । सत्ा का लोभ संवरण मुश्किल
इलाहाबाद ससथत आजादी बचाओ आंदोलन के महाना्यक सिगटी्य डॉ . बनवारी लाल शर्मा ने उस आंदोलन तथा बाद में बनी पॉलिटिकल पाटटी से जुडने से इनकार कर मद्या लेकिन देशभर के कुछ साथी उस आंदोलन में जुड गए । उस घटना को उस वकत छात् आंदोलनकारी के रूप में आजादी बचाओ आंदोलन में रहकर मैंने नजदीक से महसूस मक्या कि किस प्कार सामाजिक संगठन को आर्थिक संसाधन मुहै्या कराने वाले संवेदनशील लोग भी उस धारा में
बह कर सामाजिक संगठन को पैसे न दे कर अन्ना आंदोलन तथा आम आदमी पाटटी को पैसे देने लगे । ्यह चीज इस बात को भी जाहिर करती है कि इस देश का मानस अंततः ्यही सोचता है कि राज्य सत्ता पाकर ही हम अंतिम लक््य को हासिल कर सकते हैं जो बिलकुल गलत है । मैं ऐसे तीन आंदोलनकारी का नाम गिना सकता हूं जो राजनीति में आने के बाद आसानी से सत्ता पा सकते थे और शा्यद कुछ बुमन्यादी बदलाव कर सकते थे । ्ये नाम हैं महातमा गांधी , जयप्रकाश नारा्यर और डॉ . बनवारी लाल शर्मा , लेकिन तीनों की अंतर्दृष्ट सप्ट थी कि आप राजनीति में जाकर थोडा बहुत सुधार भले कर लें ( हालांकि अब ्यह भी बाजार संचालित व्यवसथा में नहीं दिखता ) लेकिन जिन बुमन्यादी बदलाव को लेकर आंदोलन मक्या जाता है तो वह लक््य कभी हासिल नहीं हो सकता । गांधीवाद तो प्ेम और करुणा के बल पर ्यह लक््य हासिल करने का प्रयास करता रहा है और कुजात गांधीवादी के तौर पर मेरा ्यह मानना है कि आप किसी एक वाद के बल पर समाज निर्माण नहीं कर सकते हैं इसलिए आंदोलन के बल पर लोगों को जागरूक कर हम सत्ता पर इतना दबाव डाल सकते हैं कि राजनीति में जो खेल के मन्यम हैं और उस मन्यम के कारण ही इसे “ काजल की कोठरी ” कही जाती है उस मन्यम में हम बदलाव कर सकें । जब ्यह बदलाव होगा तभी राजनीति में जाकर हम उन आदशषों को पूरा कर सकेंगे वरना राजनीति में जाकर हम अपनी महतिाकांक्ा को जरूर तु्ट कर लें , आपका “ धर्म परिवर्तन ” आदर्श आंदोलनकारी से सुविधाभोगी और सत्तालोलुप राजनीमतज् में होकर रहेगा ।
जनभावना का राजनीतिक दोहन
उपरोकत बातें इस बात की ओर भी इंगित करती हैं कि आंदोलनकारी लगातार आंदोलन नहीं चला सकते हैं । वह भी आंदोलन समापत करने का कुछ सपेस ढूंढते हैं । राज्य सत्ता के
पास अपनी पुलिस , कानून , संविधान आदि होता है । उसके सामने आंदोलनकारी लगातार लंबे सम्य तक मैदान में नहीं टिके रह सकते । संसाधन भी एक मुख्य कारण होता है । महातमा गांधी भी सम्य-सम्य पर आंदोलन को सथमगत करते रहे हैं ताकि पुनः एकारि होकर संचित ऊर्जा के साथ आंदोलन में कूदा जाए । किसान आंदोलन को सथमगत करने के फैसले में तमाम कारणों में ्यह भी एक कारण था , अन्यथा आंदोलनकारी एमएसपी बनवाने के बाद भी हट सकते थे । आंदोलनकारर्यों को इस बात का भी अहसास होना चाहिए कि उनहें जनसमर्थन आंदोलन के लिए मिलता है न कि सत्ता के लिए । वर्ष 2014 के आम चुनाव में इस बात को बहुत से आंदोलनकारी न समझ कर आम आदमी पाटटी की तरफ से चुनाव में उतरने का फैसला मक्ये और अपनी जमानत तक नहीं बचा सके ।
राह भटक रहे आं दोलनजीवी
बहुजन समाज पाटटी और आम आदमी पाटटी , पिछले 70 सालों में ्यह दो ऐसी पामट्ट्यां हैं जो आंदोलन के गर्भ से निकलकर एक से अधिक राज्यों के अपना जनाधार सम्य-सम्य पर फैलाती रही हैं । पंजाब और उत्तराखंड में आम आदमी पाटटी को इस बार कितनी सीटें मिलेंगी ्यह तो नहीं पता लेकिन इतने वोट अवश्य बटोर सकती है जिसके दम पर वह मुख्यधारा की राष्ट्रीय पाटटी बन जाए । उपरोकत दोनों पामट्ट्यां जिन आदशषों के लेकर चली थीं उसकी कीमत पर वह ऐसा करती हैं । इसलिए व्यसकतगत तौर पर मेरा मानना है कि एक आंदोलनकारी को अगर उसी आदर्श और सपने को लेकर आगे बढना है तो हमेशा चैतन्य रहना होगा । वैसे भी अब वर्तमान जीवनशैली , पारिवारिक दबाव और संगठन की खराब आर्थिक हालत आपको पूर्णकालिक समाजकमटी बनने नहीं देता । अतः अगर हम आदर्श के प्मत चैतन्य नहीं रहे , तो उससे भटकने का खतरा मैं हमेशा प्त्यक् रूप से आस-पास महसूस करता हूं । �
iQjojh 2022 दलित आं दोलन पत्रिका 25