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दलित चरेतना का हो रहा विस्तार
रंजीत ने शनदजेिक मारी सेल्वराज की पहली शफ़्म पेरियारम पेरुमल को प्रोड्ूस किया । यह शफ़्म एक कार्ड जिस पर लिखा होता है " जाति और धर्म मान्वता के शख़लाफ़ हैं " से शुरू होती है । इस शफ़्म का नायक बाबा साहब आंबेडकर की तरह ही ्वकील बनना चाहता है । इस शफ़्म में एक सीन है , जिसमें 1983 के शफ़्मी गीत पोरादादा पर कुछ मर्द नाच रहे हैं । इस गाने का संगीत महान संगीतकार और ख़ुद एक दलित इलैयाराजा ने दिया है । गाने के बोल हैं , " हम आपका सिंहासन संभालेंगे /... जीत के लिए हमारी पुकार सुनी जाएगी / हमारी रोशनी इस दुनिया को चकाचौंध कर देगी / हम स्व्थहारा हैं तो लडेंगे ।" यही गीत सेल्वराज की शफ़्म कर्णन ( 2021 ) की पपृषठभूमि में भी बजता है । अब यह ' दलित गीत ' के रूप में जाना जा रहा है ।
सुपरस्ार भी हो रहरे आकतरटित और प्भावित
तमिल सिनेमा के सुपरस्टार रजनीकांत का रंजीत की शफ़्मचों को शह्ट करने में बडा योगदान रहा । रजनीकांत इन शफ़्मचों की कहानियचों से प्रभाश्वत होकर लीड रोल करने को राज़ी हुए । उन्होंने कबाली ( यह मलेशिया के एक तमिल प्र्वासी गैंगस्टर की कहानी है ) और काला ( यह शफ़्म एशिया के सबसे बडे सलम की कहानी है , जहाँ बडी तादाद में तमिल प्र्वासी रहते हैं ) में काम किया । और नई शफ़्म सरपट्ा परंबराई में रंजीत ने चेन्नई के दलितचों के बीच मुककेबाज़ी संसकृशत को खोजा , जो मोह्मद अली से गहराई से प्रभाश्वत था । ्वे के्वल उनके खेल से ही नहीं बल्क श्वयतनाम युधि से लेकर अमेरिका में नसलभेद के शख़लाफ़ उनके संघर्ष से भी प्रभाश्वत थे ।
दलित चिंतन की धुरी पर नाच रहा सिनरेमा
हालांकि कई लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि मौजूदा दौर की फिल्मों के सारे दलित किरदार तारीफ़ के क़ाबिल नहीं हैं । 2019 में आई शफ़्म ' मादाथी : एन अनफ़ेयरी ्टेल ' की शनदजेिक लीना
मणिमेकलई का मानना है कि नए सिनेमा ने कोई ख़ास बदला्व नहीं किया है । ्वो कहती हैं कि नई शफ़्मचों के नायक , उनकी ख़ाशसयतें और कहानी का मूल सब पहले जैसा ही है । ्वो कहती हैं कि महिला किरदारचों की भूमिकाएं भी पहले जैसी ही हैं । लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर रहा कि अब दलित चिंतन काफी तेजी से मुखयधारा की सिनेमा पर हा्वी हो रहा है । हालांकि इस भेडचाल में ऐसी शर्में भी बन रही हैं जिसे देखकर ऐसा लगता है मानो पुरानी बोतल में इस तरह की नई शराब भरी जा रही है जिसके केनद्र में दलित चिंतन रहता है । शनलशचत तौर पर यह तो कहा ही जा सकता है कि यह दलित समाज की मुखरता और जागरूकता ही नहीं बल्क एकजु्टता और सशकतता का भी प्रतीक है कि प्रबुधि ्वग्थ को केनद्र में रखकर घूमता आ रहा सिनेमा अब दलित चिंतन के कले्वर की धुरी पर नाचता दिख रहा है । ्वास्तविकता यही है कि तमाम कमियचों ्व खामियचों के बाद भी दलित चिंतन की धुरी पर केलनद्रत फिल्मों का बनना आ्वशयक भी है और अपेशक्त भी । �
50 iQjojh 2023