eMag_Feb 2023_DA | Page 29

नयूज चैनल के बलॉग पेज पर लिखता है कि पशु और मनुषय में यही श्विेष अनतर है कि पशु अपने श्वकास की बात नहीं सोच सकता , मनुषय सोच सकता है और अपना श्वकास कर सकता है । हिनदू धर्म ने दलित ्वग्थ को पशुओं से भी बदतर लस्शत में पहुँचा दिया है , यही कारण है कि ्वह अपनी लस्शत परर्वत्थन के लिए पूरी तरह निर्णायक कोशिश नहीं कर पा रहा है , हां , पशुओं की तरह ही ्वह अच्े चारे की खोज में तो लगा है लेकिन अपनी मानसिक गुलामी दूर करने के अपने महान उद्ेशय को ग्भीरता से नहीं ले रहा है । इनहोने जो इसमें इनका मत सपष्ट दिखाई दे रहा है किनतु प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि कया धमािंतरण ही एक मारि उपाय बचा है ? और यदि कर भी लिया कया गारं्टी है कि धमािंतरण करने से सारे कषठ दूर हो जायेंगे ? मान लो यदि धर्म परर्वत्थन कर सारे कष्ट दूर होते तो आज मुलसलमो के 56 देश है कितने देिचों के मुलसलम शांति और सामाजिक समर्धि , समरसता और सोहार्द से जी्वन जी रहे है ?
साजिश सरे सचरेत रहना जरूरी
धर्मिक और जातिगत पागलपन मनुषय के स्वभा्व में है सुकरात को जहर किसी पशु ने नही दिया था , जीसस को शूली पर ल्टकाने ्वाले भी मनुषय ही थे , स्वामी दयानंद को श्वष देने ्वाले बाहर से नहीं आये थे मतलब यह है कि मनुषय ही मनुषय समाज के श्वकास में बाधक रहा है । प्रथम बात , हम मानते है कि देश में अभी भी कुछ जगह जाशत्वाद और छुआछूत वयापत है और इस सामाजिक भेदभा्व की समसया से कोई भी ्वग्थ समुदाय या देश अछूता नहीं है । यहाँ तक कि अमेरिका जैसे श्वकसित िलकतिाली देश में भी गोरे काले का भेदभा्व हमसे कहीं जयादा है । मुलसलम देिचों में तो शिया , सुन्नी की आपसी जंग किसी से छिपी नही है पर पाकिसतान जैसे कुछ देिचों में तो अहमदिया जैसे गरीब तबके पर खुले रूप से अत्याचार होते है । दूसरी बात आज लोगचों कि सोच काफी हद तक बदली और बदल रही है । कया कोई शहरचों में किसी हल्वाई
की जाति पूछकर समोसा खरीदता है ? रेहड़ी ्वाले उसका धर्म या जात पूछकर पानीपूरी या जलेबी खाता है ? नहीं पूछता परनतु यदि किसी रेहड़ी ्वाले से किसी ग्ाहक का झगड़ा हो जाये और नौबत मारपी्ट तक आ जाये तो मीडिया से जुड़े लोग रेहड़ी ्वाले की जाति धर्म पूछकर , यदि दुभागय से किसी कारण ्वो रेहड़ी ्वाला मुलसलम या दलित हुआ तो खबर जरुर बना देते है कि देखिये किस तरह एक दलित या अ्पसंखयक पर हमला हुआ उसके लिए नयूज स्टूडियो से इंसाफ की मांग उठाई जाएगी । इसके
बाद तथाकथित दलितचों के दे्वता हैं , गरीबचों के रहनुमा हैं , जिनहें इसी काम के लिए देश-श्वदेश से पैसा मिल रहा है । ये धार्मिक ्व जातीय घपृणा के सौदागर सड़कचों पर ज्ञापन , धरना , प्रदर्शन , सतयाग्ह तथा महापड़ा्व डालने की घोषणा कर धरना प्रदर्शन शुरू कर देते है और इस मामले को शुरू करने ्वाली मीडिया लाइ्व प्रसारण शुरू कर देती है । इनकी कोशिश यही रहती है कि जिसे ये दलित दलित कहकर कहकर सात्वना प्रक्ट करते है जितना यह चाहते है ्वह के्वल ्वही और उतना ही सोचे जितना यह लोग चाहते जिसका मापदंड पहले से ही तय लगता
है !
यह लोग हर एक मुद्े पर ऐसा दिखाते है जैसे इनके हाथ में दलितचों का भश्वषय है , ये गलत मुद्े तथा अधूरी जानकारियचों के जरिए देशभर के दलित बहुजन गुमराह कर रहे हैं , क्योंकि ये स्वघोषित महान अंबेडकर्वादी हैं । कई बार तो लगता है जैसे कुछ नेताओं ने देश को खंड-खंड करने की साजिश का शज्मा सा ले लिया हो ? हम मानते है कुछ समसया श्वरा्ट रूप लेकर खड़ी हो जाती हैं । किनतु कया उसका निदान राजनीति और मीडिया ही कर सकती है ,
उसके लिए नयाय प्रणाली कोई मायने नही रखती ? यदि हाँ तो ऐसी धारणा को कौन बल दे रहा है यह प्रश्न भी इस संदर्भ में प्रासंगिक है । हमे किसी प्रकार की राजनीति नहीं करनी है , जिसे करनी है ्वो करे , हम मान्वता , शांति , सहिषणुता , भाईचारे , समानता तथा स्वतंरिता जैसे लोकतांशरिक मूल्यों के पक्धर है और रहेंगे । किनतु किनही ्वजहचों से जब कुरीति , छुआछूत के कारण या किसी अनय ्वजह से हमारे देश या धर्म पर ठेस लगती है तो उसकी सीधी पीड़ा हमारे ह्रदय में होती है ।
( साभार ) iQjojh 2023 29