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तक सामाजिक चेतना का विकास भी संभव नहीं हो पाता है । इस प्रकार डा . आंबेडकर जनतंत्र को एक जीवन पद्दत के रूप में भी ्वीकार करते हैं , वे वयसकत की श्ेषठता पर बल देते हुए सत्ता के परिवर्तन को साधन मानते हैं । वे कहते थिे कि कुछ संवैधानिक अधिकार देने मात्र से जनतंत्र की नींव पककी नहीं होती । उनकी जनतांत्रिक वयवस्था की कलपना में ‘ नैतिकता ’ और ‘ सामाजिकता ’ दो प्रमुख मदूलय रहे हैं जिनकी प्रासंगिकता वर्तमान समय में बढ़ जाती है । दरअसल आज राजनीति में खींचा-तानी इतनी बढ़ गई है कि राजनैतिक नैतिकता के मदूलय गायब से हो गए हैं । हर राजनीतिक दल वो्ट बैंक को अपनी तरफ करने के लिए राजनीतिक नैतिकता एवं सामाजिकता की दुहाई देते हैं , लेकिन सत्ता प्रासपत के पशरात इन दसद्ांतों को अमल में नहीं लाते हैं ।
समानता पर विचार : डा . आंबेडकर समानता को लेकर काफी प्रतिबद् थिे । उनका मानना थिा कि समानता का अधिकार धर्म और जाति से ऊपर होना चाहिए । प्रतयेक वयसकत को विकास के समान अवसर उपलबध कराना किसी भी समाज की प्रथिम और अंतिम नैतिक जिममेदारी होनी चाहिए । अगर समाज इस दायितव का निर्वहन नहीं कर सके तो उसे बदल देना चाहिए । वे मानते थिे कि समाज में यह बदलाव सहज नहीं होता है , इसके लिए कई पद्दतयों को अपनाना पड़ता है । आज जब विशव एक तरफ आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है तो वहीं ददूसरी तरफ विशव में असमानता की घ्टनाएँ भी देखने को मिल रही हैं । इसमें कोई दो राय नही है कि असमानता प्राकृतिक है , जिसके चलते वयसकत रंग , रूप , लमबाई तथिा बुदद्मता आदि में एक- ददूसरे से भिन्न होता है । लेकिन सम्या मानव द्ारा बनायी गई असमानता से है , जिसके तहत एक वर्ग , रंग व जाति का वयसकत अपने आप को अनय से श्ेषठ समझ संसाधनों पर अपना अधिकार जमाता है । यदूएनओ द्ारा इस संदर्भ में प्रति वर्ष न्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस मनाया जाता है , जो आज भी समाज में वयापत असमानता को प्रक्ट करता है । भारत में इस स्थिति की
गंभीरता को धयान में रखते हुए संविधान के अंतर्गत अनु्छेद 14 से 18 में समानता का अधिकार का प्रावधान करते हुए समान अवसरों की बात कही गई है । यह समानता सभी को समान अवसर उपलबध करा सकें , इसके लिए शोषित , दबे-कुचलों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया । इस प्रकार आंबेडकर के समानता के विचार न सिर्फ उनहें भारत के संदर्भ में , बसलक विशव के संदर्भ में भी प्रासंगिक बनाते हैं ।
आदथि्मक विचार : दरअसल आज भी भारतीय अथि्मवयवस्था में गरीबी , बेरोजगारी , आय एवं संपत्ति में वयापक असमानता , अशिक्षा और अकुशल श्म इतयादि सम्याएँ वयापत हैं । अथि्मवयवस्था को लेकर डा . आंबेडकर के महतवपदूण्म विचार को निम्न बिनदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है-
द प्रॉबलम ऑफ़ द रुपए : 15 origin and its solution नामक अपनी रचना में डा . आंबेडकर ने 1800 से 1893 के दौरान , विनिमय के माधयम के रूप में भारतीय मुद्रा ( रुपये ) के विकास का परीक्षण किया और उपयुकत मौद्रिक वयवस्था के चयन की सम्या की भी वयाखया की । आज के समय में जब भारतीय अथि्मवयवस्था मुद्रा के अवमदूलयन और मुद्रा्फीदत की सम्या से दो-चार हो रही है तो ऐसे में उनके शोध के परिणाम न सिर्फ सम्याओं को समझने में महतवपदूण्म हो सकते हैं बसलक वह इसके समाधान को लेकर आगे का मार्ग भी प्रश्त कर सकते हैं ।
आंबेडकर ने 1918 में प्रकाशित अपने लेख भारत में छो्टी जोत और उनके उपचार में भारतीय कृषि तंत्र का ्पष्ट अवलोकन किया । उनहोंने भारतीय कृषि तंत्र का आलोचनातमक परीक्षण करके कुछ महतवपदूण्म परिणाम निकाले , जिनकी प्रासंगिकता आज तक बनी हुई है । उनका मानना थिा कि यदि कृषि को अनय आदथि्मक उद्मों के समान माना जाए तो बड़ी और छो्टी जोतों का भेद समापत हो जाएगा , जिससे कृषि क्षेत्र में खुशहाली आएगी । उनके एक अनय शोध ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास की प्रासंगिकता
आज भी बनी हुई है । उनहोंने इस शोध में देश के विकास के लिए एक सहज कर प्रणाली पर बल दिया । इसके लिए उनहोंने ततकालीन सरकारी राजकोषीय वयवस्था को ्वतंत्रत कर देने का विचार दिया । भारत में आदथि्मक नियोजन तथिा समकालीन आदथि्मक मुद्ें व दीर्घकाल में भारतीय अथि्मवयवस्था को मजबदूत बनाने के लिए जिन संस्थानों को ्वतंत्रता के पशरात स्थापित किया गया उनकी स्थापना में डा . आंबेडकर का अहम योगदान रहा ।
सामाजिक विचार : डॉ आंबेडकर का सम्पूर्ण जीवन भारतीय समाज में सुधार के लिए समर्पित थिा । उनहोंने प्राचीन भारतीय ग्न्थों का विशद अधययन कर यह बताने की चेष्टा भी की कि भारतीय समाज में वर्ण-वयवस्था , जाति-प्रथिा तथिा अ्पृशयता का प्रचलन समाज में कालानतर में आई विकृतियों के कारण उतपन्न हुई है , न कि यह यहाँ के समाज में प्रारमभ से ही दवद्मान थिी । सामाजिक क्षेत्र में उनके द्ारा किए गए प्रयास किसी भी दृष्टिकोण से आधुनिक भारत के निर्माण में भुलाये नहीं जा सकते जिसकी प्रासंगिकता आज तक जीवंत है । सामाजिक क्षेत्र में उनके विचारों की प्रासंगिकता को निम्न बिनदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है-
डॉ आंबेडकर ने वर्ण वयवस्था को अवैज्ादनक , अतयारारपदूण्म , संकीर्ण तथिा गरिमाहीन बताते हुए इसकी क्टु आलोचना की थिी । डॉ आंबेडकर का मत थिा कि समदूह तथिा कमजोर वगमों में जितना उग् संघर्ष भारत में है , वैसा विशव के किसी अनय देशों में नहीं है । इस वयवस्था में कार्यकुशलता की हानि होती है , कयोंकि जातीय आधार पर वयदत्तफ़यों के कायमों का पदूव्म में ही निर्धारण हो जाता है । अनतजा्मतीय
12 fnlacj 2023