BISWAS Nov 1 Issue 18 | Page 145

इस समय पूरी दुनिया में खौफ का माहौल है. डब्ल्यूएचओ और सरकार द्वारा निर्धारित दवा नियमित रूप से ली जा रही है. जो टीका भेजा जा रहा है, उसे ही लगाया जा रहा है. वे कहते हैं कि घर से बाहर मत निकलो, तो लोग खुद को घर में बंद कर रहे हैं. जब उनका मन करता है, तो वे लोगों को अपना व्यवसाय बंद करने के लिए कहते हैं, तो लोग उसे बंद कर देते हैं. किसी ने ध्यान नहीं दिया कि कोई भी व्यक्ति अपना मालिक स्वयं नहीं है, उनका मालिक कोई और हो गया है. कोरोना के नाम पर लाखों रुपये की दवा खरीदने कहा जाता रहा है. ऐसी दवाइयों का नाम भी हमने कभी नहीं सुना, फिर भी ये दवाएं ली जा रही हैं. इन महंगी और अत्यधिक जहरीली दवाओं के सेवन से लोग अपनी जान गंवा रहे हैं. इन दवाओं का प्रतिरक्षा प्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, फिर भी कोई इस पर ध्यान नहीं देता. और कोई भी डॉक्टर इसके खिलाफ बोलने को तैयार नहीं हो रहा है. हालांकि जब जनसंख्या नियंत्रण नहीं हो रहा है, तो उन्होंने 138 करोड़ भारतीयों के दिमाग पर कब्जा कर लिया है. यानी हर कोई एक 'जिंदा लाश' बन गया है! क्योंकि 'जिंदा लाशें' व्यवस्था पर कभी सवाल नहीं उठा सकती!

इतिहास को ध्यान में रखते हुए हम अब तक सुधर नहीं पाए हैं. हमारे पास अभी भी अपना सिर नहीं है. हमने अपनी अंतरात्मा को गिरवी रख दिया है, जिसके परिणामस्वरूप यह देश एक बार फिर विदेशी शक्तियों के हाथों में जाने की कगार पर पहुंच रहा है, बल्कि चला गया है. क्योंकि अपने देश की व्यवस्था अब डब्लूएचओ के प्रोटोकॉल के अनुसार चल रही है. अब ऐसी विदेशी शक्तियों को भारत पर आक्रमण करने की कोई आवश्यकता नहीं है. ये विकृत विदेशी शक्तियाँ अब भारत से बाहर रह रही हैं और अब भारत के साथ मिलकर दुनिया के सभी देशों को गुलाम बनाने की साजिश रच रही हैं. दुर्भाग्य से, इसमें संदेह करने का कोई कारण नहीं है कि देश के शीर्ष नेता उनमें शामिल हैं. जैसा कि 'साहेब' ने खुद संसद में खुलकर कहा है. यद्यपि ये सभी चित्र अब स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं. यदि ये अंधभक्त इस नई विश्व व्यवस्था का समर्थन करने जा रहे हैं, तो अंत में केवल एक ही कहना है - 'विनाश काले विपरीत बुद्धि!'

लगभग सवा अरब की आबादी वाले और जाति, भाषा, धर्म, पंथ आदि के आधार पर खंडित देश में लोकतंत्र 70 साल से भी अधिक समय से केवल नाम के लिए टिका हुआ है. इसी तरह, भले ही लोकतंत्र की पुस्तक परिभाषा 'लोगों द्वारा, लोगों के लिए चलाए जाने वाला राज्य' है, फिर भी भारतीय लोग विश्व बैंक से उधार ली गई पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्था के गुलाम हो गए हैं और भारत सरकार की प्रणाली भी यही है.

दरअसल, हमें अपनी सरकार पर नियंत्रण रखना होगा. उसे पटरी पर रखना होगा, ताकि वह सही दिशा में काम कर सके. अगर वे गलत हैं, तो उन्हें पूछना चाहिए कि क्या वे स्वार्थी हैं! एक नागरिक के रूप में देश के प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति का यह कर्तव्य है. इसके विपरीत, समाज में पढ़े-लिखे लोग कहते हैं कि सरकार जो कुछ भी कर रही है, वह योग्य ही है. दरअसल, कोरोना काल में जो लोग अपनी भूमिका से प्रोटेस्ट करते रहे या इसके विपरीत बोलते रहे, वे भी आजकल वर्तमान के साथ चल रहे हैं.

लब्बोलुआब यह कि सामान्य ज्ञान, विश्लेषण, विचार, सूचना जैसे समझने के किसी भी वस्तुनिष्ठ साधन से दूर, अंध निष्ठा के आधार पर ही निर्णय लेना शुरू है. दूसरी ओर, इस देश सिस्टम (तंत्र) अंततः सरकार के दिमाग को नियंत्रित (माइंड कंट्रोल) करने में सफल रहा है और जो सरकार को उन नीतियों के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं, जो देशों में संसाधनों की बिक्री के लिए उपयुक्त नहीं हैं या हमारी राय में खतरनाक लगती हैं.

किसी तरह एक चिकित्सा प्रणाली प्रचलन में आई, यानी वह चिकित्सा प्रणाली और वे चिकित्सक, साथ ही इस कार्यक्रम को लागू करने वाली सरकार, हमारे अच्छे और बुरे के स्वामी हैं और अगर उनके सभी व्यवहार, हमें सही काम लग रहे हैं, तो फिर हम नागरिक नहीं, बल्कि किसी के गुलाम हैं. अब असंख्य अंधभक्त गुलाम बनकर अपनी बुद्धि (दिमाग) का दरवाजा बंद कर रहे हैं और अपने दिमाग का रिमोट कंट्रोल किसी और को सौंप रहे हैं ... इससे बढ़कर कोई दूसरी परिभाषा नहीं हो सकती!

प्रकाश पोहरे,

प्रधान संपादक, दैनिक देशोन्नती एवं दैनिक राष्ट्रप्रकाश

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