Savita Mishra
(शीर्षक----"बसंत " / सप्ताह 1)
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१-सजी हुई है जैसे नवयौवना
मौसम बनता है इसका गहना
पुराने वस्त्र उतार गिराया
नव-नवीन वस्त्र किया धारण
नवीन ताम्र-पत्र की सुन्दरता
नवयोवना को और भी निखारता
नवीन वस्त्र एवं गहनों से सजी यौवना
हमें लुभाती चीर कर पृथ्वी का सीना
वसंत ऋतू की यह मन मोहना
कोई और नहीं वृक्ष है यह किसी से ना कहना||
२-ओह कैसी ऋतू यह आई
बुढ़िया भी जैसे शरमाई
मौसमी हवा के तेज झोकों से
झड़ गए पत्ते हर नोकों से
बादल की ओर निहारती
अपनी हालत पर लजाती
सौन्दर्य की थी जो बाला
लगती है अब मेरे अब्बू की खाला||
३-निचाट हो गया था जो उपवन
लो फिर आ गया सावन
कोमल पत्तिया किलकारने लगी
गहनों से फिर स्वयं को संवारने लगी
पूर्ण यौवना को फिर पाने लगी
घूमड़-घूमड़ कर फिर बदली छाने लगी||
४-जैसे-जैसे बरसता है सावन
निखरता जाता सौन्दर्य मनभावन
दिल में रखकर धैर्य
देखतें ही बनता है प्रकृति सौन्दर्य
अग्नि में तपकर चमकता है जैसे सोना
वैसे ही सुन्दर लगता है उपवन घना
हर मौसम के झंझावतो को सहता
पृथ्वी के सौन्दर्य को है बढ़ाता
प्रकृति सौन्दर्य को तुम भी अपने गले लगातें
जो एक वृक्ष अपने कर कमलों से उगातें||...सविता मिश्रा