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संवैधानिक गणतंत्

की है, क्क चीजें उस तरह से नहीं हो रही हैं जैसा संक्वधान में बताया गया है । यक्द वह चेतावनी क्वफल हो जाती है, तो उनके क्लए दूसरा काम यह होगा क्क वह चुनाव का आदेश दें ताक्क प्रांत के लोग सवयं मामले सुलझा सकें । यह तभी संभव होगा जब यह दो उपाय असफल होने पर वह इस अनुचछेद का सहारा लेगा ।''
उपरो्त अंश इंक्गत करता है क्क डा. आंबेडकर संक्वधान में अनुचछेद-356 को शाक्मल क्कए जाने से खुश नहीं थे । लेक्कि, प्रारूप सक्मक्त के अधयक्ष के रूप में उनके पास इस अनुचछेद का समर्थन करने के अलावा कोई क्वकलप नहीं था । उत्हनोंिे यह भी आशा वय्त की क्क ऐसे अनुचछेद कभी लागू नहीं हनोंगे और यह एक मृत परि बनकर रह जाएँगे । उत्हनोंिे यह भी बताया क्क यक्द शन््त का प्रयोग करना ही है, तो इसे संयम से क्कया जाना चाक्हए और इसका कारण राजय में संवैधाक्िक तंरि की क्वफलता होनी चाक्हए ।
डा. आंबेडकर जन्मजात लोकतांत्रिक थे । वह कानून के शासन और लोकतंरि में क्वशवास करते थे । उत्हनोंिे हमेशा इस बात पर जोर क्दया क्क लोकतंरि के क्ियम क्िष्पक्षता पर आधारित होने चाक्हए । इसक्लए उत्हनोंिे संक्वधान सभा में कहा
क्क अनुचछेद-356 के तहत शन््त का उपयोग केंद्र सरकार द्ारा राजनीक्तक उद्ेश्यों के क्लए नहीं क्कया जाना चाक्हए । हालाँक्क, केंद्र में सत्ाधारी सभी राजनीक्तक दलनों ने उनकी आशाओं पर पानी फेर क्दया । इस शन््त का खुला दुरुपयोग तब शुरू हुआ जब जवाहरलाल नेहरू ने केरल में कम्युनिसट सरकार को बर्खासत कर क्दया । इस अनुचछेद के दुरुपयोग की यह प्रक्रिया उत्र प्रदेश, राजस्ाि, क्हमाचल प्रदेश और मधय प्रदेश सक्हत कई राज्यों के मामले में इस अनुचछेद के प्रयोग में सपष्ट रूप से देखी गई ।
भारतीय क्वक्ध संस्ाि ने 1978 में राज्यों में राष्ट्रपक्त शासन पर एक अतयंत जानकारीपूर्ण पुसतक प्रकाक्शत की । इसमें बताया गया है क्क नेहरू काल में छह मामले, लाल बहादुर शासरिी काल में दो मामले, इंक्दरा गांधी काल में अट्ाईस मामले और जनता शासन में बारह मामले थे । अनुचछेद-356 के 86 मामलनों में से क्कसी में भी डलॉ. आंबेडकर द्ारा उन्ललक्खत प्रक्रिया का पालन नहीं क्कया गया । प्रेस में यह बताया गया क्क राष्ट्रपक्त डा. शंकर दयाल शर्मा 1992 में उत्र प्रदेश, मधय प्रदेश, क्हमाचल प्रदेश और राजस्ाि राज्यों के संबंध में अनुचछेद-356 के तहत उदघोषणा पर हसताक्षर करने के क्लए
अक्िचछुक थे । उत्हनोंिे अपनी असवीककृक्त वय्त करके सही क्कया था । लेक्कि, ऐसा प्रतीत होता है क्क संक्वधान के तहत उनके पास कोई अन्य क्वकलप नहीं होने के कारण वह अंततः हसताक्षर करने के क्लए सहमत हो गए । इस संबंध में यह तर्क क्दया जाता है क्क डा. शंकर दयाल शर्मा को प्रधानमंरिी नरक्समहा राव का धयाि डा. आंबेडकरद्ारा संक्वधान सभा में की गई क्टप्पणियनों की ओर आकक्ष्वत करके और उन्हें तदनुसार कार्य करने की सलाह देकर अपनी बात रखनी चाक्हए थी ।
अनुचछेद-356 के अंतर्गत अक्धकांश मामलनों में, केंद्र में सत्ारूढ़ दल का असक्हष्णु और तानाशाही रवैया ही अनुचछेद-356 के उपयोग के मूल में था । संक्वधान सत्ा के दुरुपयोग या दुर्भावनापूर्ण उपयोग के क्वरुद्ध कोई क्वक्शष्ट उपचार प्रदान नहीं करता है । हालांक्क राष्ट्रपक्त द्ारा की गई घोषणा को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है । अनुचछेद-356 का दानव अतीत में उतपात मचाता रहा है । इस दानव को बेक्ड़यां डालना आवशयक है । यक्द डा. आंबेडकर आज हमारे बीच होते, तो वह इस त्याक्यक दृन्ष्टकोण से बहुत प्रसन् होते ।
( साभार)
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