उपेक्क्षत अपमाक्ित एवं क्तरस्कृत जाक्तयनों को उत्हनोंिे आशा और क्वशवास के साथ एक मजबूत संबल प्रदान क्कया, जो असहाय और असंगक्ठत थे उन्हें एक मजबूत आधार और मंच क्दया, भय और प्रताड़िा के कारण क्जिकी वाणी मूक हो गई थी उन्हें सश्त वाणी दी । साथ ही, अन्याय और अतयाचार के क्वरुद्ध एकजुट होकर संघर्ष
करने की क्षमता भी उन्हें प्रदान की ।
यह बात हमारे समरण में सदैव रहनी चाक्हए क्क वे क्जस वयवस्ा के क्वरुद्ध लड़ रहे थे वह सक्दयनों की रूढ़ परमपराओं के कारण दृढ़ हो गई थी और कहीं-कहीं तो उसने तथाकक््त शासरिनों और धर्म की क्वककृत धारणाओं से सहारा लेने की कोक्शश भी की थी । इस कारण, इन
कुरीक्तयनों, रूढ़ियनों तथा क्मथया मान्यताओं की जड़ें गहरी थी तथा ये दीवारें बहुत मजबूत थीं । इनसे संघर्ष लेना और उनको ढहाना आसान न था । डा. अमबेडकर ऐसे दृढ़ प्रतिज्ञ व्यक्त थे क्जत्हनोंिे अपने बालयकाल से लेकर संक्वधान प्रारूप सक्मक्त के अधयक्ष पद तक इन भेदभावनों को सवयं झेला । अपमान और क्तरसकार की पीड़ा ने अनेक बार उनके हृदय के अन्तरतम को झकझोर कर रख क्दया था । अपने करोड़ों बन्धुओं के दु: ख को देखकर वे दृढ़ होते चले गये । " अपना यह जीवन इन्हीं पीड़ित मानवजिनों के दु: खनों को दूर करने में ही लगा दूंगा " यह संकलप क्दि प्रक्तक्दि और अक्धक मजबूत होता चला गया । भौक्तक सुखनों की चाह, उच्च पद प्रापत करने की महतवाकांक्षा, व्यक्तगत प्रक्तष्ठा, परिवार आक्द का मोह भी उन्हें इस मार्ग से कभी क्वचक्लत न कर सका । इसी कारण जब आवशयकता पड़ी तब वे केन्द्रीय मंरिी का प्रक्तन्ष्ठत पद छोड़कर नेहरू जी के मंत्रिमंडल से बाहर आ गये । हैदराबाद के क्िजाम तथा वैक्टकन क्सटी के पोप द्ारा अककूत समपक्त् का क्िवेदन भी उन्हें उनके मार्ग से भ्रमित न कर सका और वे क्िरन्तर अपने सुक्िश्चित मार्ग पर चलते रहे क्जसके द्ारा करोड़ों असपृशय बन्धुओं को सम्मानित जीवन प्रापत करवा सकें ।
आनदोलनकारी समाज सदुरारक
डा. अमबेडकर जी के जीवन में एक महतवपूर्ण बात हमको क्दखलाई देती है वह यह है क्क वे पुरानी सभी मान्यताओं, आदशयों और वयवस्ाओं को धवसत करना नहीं चाहते तथा क्कसी जाक्त या वर्ण के वे शरिु नहीं हैं, जो अचछा है वह संभालकर रखना और जो अनावशयक है उसे हटाना ही उन्हें अभीष्ट है । इस दृन्ष्ट से वे एक " आन्दोलनकारी " हैं । डा. अमबेडकर यह जानते थे क्क भारतीय दर्शन के मौक्लक ततव बहुत उदात् हैं । क्कत्तु, क्वककृक्तयनों, रूढ़ियनों, ढनोंग, पाख्ड, कर्मकाण्डों एवं परंपराओं का अनावशयक अक्तरेक, क्जसने उस समसत दर्शन जो सभी मनुष्यनों को समान मानता है तथा करुणा, प्रेम, ममता, बन्धुतव, दया, क्षमा, श्रद्धा आक्द सदगुणनों का सन्देश देता
है एवं उसका संरक्षण भी करता है, को ढरंक क्लया है, वही हमारे परिवर्तन का मूलाधार बना रहे ।
सुधारवादी आन्दोलन को चलाते समय हर क्षण यह बात समरण रखनी होगी क्क यक्द क्कसी भी कारण से आपसी प्रेम, ममता और बन्धुतव का भाव समापत हो गया तो परिवर्तन का यह संघर्ष एक क्रूर वैमनसय में बदलकर अक्धकतम अक्धकारनों को पाने की इचछा रखने वाले गृहयुद्ध में बदल जायेगा । अत: वे कहते थे क्क हम यह बात धयाि में रखें क्क हमारे देश में सभी सदगुणनों का दाता, " धर्म " है । इस " धर्म " को अपने क्वशुद्ध रूप में पुनर्स्थापित करना है । ढनोंग, पाख्ड, भेदभाव, कर्मका्ड आक्द के परे " धर्म " में अत्तक्िक्ह्वत महान सदगुणनों को संरक्क्षत करते हुए हमें आगे बढ़िा है । कुछ लोग कहते हैं क्क धर्म की मानव जीवन में कोई आवशयकता नहीं है ।
डा. अमबेडकर लोगनों के इस मत से सहमत नहीं थे । उत्हनोंिे कहा- " कुछ लोग सोचते हैं क्क धर्म समाज के क्लए अक्िवार्य नहीं है, मैं इस दृन्ष्टकोण को नहीं मानता । मैं धर्म की नींव को समाज के जीवन तथा वयवहार के क्लए अक्िवार्य मानता हूं ।" मा्स्ववादी लोग धर्म को अफीम कहकर उसका क्तरसकार करते हैं । धर्म के प्रक्त यह क्वचार मा्स्ववादी दृन्ष्टकोण की आधारक्शला है । डा. अमबेडकर मा्स्ववाक्दयनों के इस मत से सहमत नहीं थे । वे इस बात से पूरी तरह आशवसत थे क्क " धर्म " मनुष्य को न केवल एक अचछा चरररि क्वकक्सत करने में सहायता करता है अक्पतु वह समाज के संरचनातमक पक्षनों को भी क्िर्धारित करता है । चरररि एवं क्शक्षा को वे धर्म का ही अंग मानते थे । वे कहते थे ' धर्म ' के प्रक्त नवयुवकनों को उदासीन देखकर मुझे दु: ख होता है ।" डा. साहब का मानना था क्क ' धर्म ' कोई पंथ या कर्मका्ड नहीं है । धर्म के नाम पर हो रहे क्िरर्थक ढनोंग, पाख्ड तथा वय्ा्वडमबरनों को वे धर्म नहीं मानते । धर्म से उनका तातपय्व है- व्यक्तगत, पारिवारिक एवं सामाक्जक वयवस्ाओं को आदर्श रूप से संचाक्लत करने वाला ' नैक्तक दर्शन ', जो सभी के क्लए श्रेयसकर है वही ' धर्म ' है । �
vxLr 2025 39