स्ातकोत्र और डॉक्टरेट की उपाक्धयां हाक्सल की । डा. आंबेडकर जाक्त वयवस्ा को सामाक्जक संबंधनों के संगठन का एक असमान रूप मानते थे, क्जसमें शुद्ध और अशुद्ध दोिनों चरम पर होते थे । उनका तर्क था क्क इस वयवस्ा को धाक्म्वक संक्हताओं के माधयम से पवित्र क्कया गया था, जो जाक्तयनों के अंतसिंयोजन को प्रक्तबंक्धत करती थीं और सामाक्जक संपर्क को एक क्वक्ियक्मत
ढांचे तक सीक्मत रखती थीं । अपनी राजनीक्त और लेखन के माधयम से डा. आंबेडकर दक्लतनों के क्लए एक कट्टर उतपीड़ि-क्वरोधी समर्थक बन गए । उनकी आलोचनातमक ककृक्तयनों में से एक ' जाक्त का क्विाश ' है, जो 1936 में क्लखा गया उनका एक अप्रकाक्शत भाषण था । 1947 में संक्वधान सभा की प्रारूप सक्मक्त
डा. आंबेडकर भारतीय राषट्रीय कांग्रेस की ओर से अछूतषों के अधिकारषों के प्हत प्हतबद्धता की कमी के कड़े आलोचक थे और 1932 के तथाकथित पूना समझौते के परिणाम ने उनिें एक कठोर आलोचक बना दिया । दलितषों को आज भी लगता है कि गांधी ने पृथक निर्वाचिका के अधिकार को नकारकर उनके साथ विशिासघात किया, जिसका अर्थ उनके लिए वास्तविक राजनीतिक शक्त था ।
के अधयक्ष चुने जाने के बाद डा. आंबेडकर ने भारत के संक्वधान के प्रारूपण की प्रक्रिया में सभा का मार्गदर्शन करते हुए अपने कई क्रांतिकारी क्वचारनों को तयाग क्दया । अनुसूक्चत जाक्तयनों( अछूतनों के क्लए यह शबद पहली बार अंग्ेजनों द्ारा प्रयु्त क्कया गया था) के क्लए सामाक्जक समानता हेतु कुछ क्वशेष संवैधाक्िक प्रावधािनों में उनके योगदान को देखा जा सकता है । सवतंरि भारत के संक्वधान( अनुचछेद-15 और 17) में असपृशयता की प्रथा को समापत कर क्दया गया था, और 1955 का असपृशयता( अपराध) अक्धक्ियम ऐसी भेदभावपूर्ण प्रथाओं को कानून द्ारा दंडनीय बनाता है । अनुचछेद-46 सकारातमक कार्रवाई का भारतीय संसकरण प्रदान करता है, क्वशेष रूप से समाज के " कमजोर वगयों " के क्लए शैक्क्षक और आक््थिक लाभनों को बढ़ावा देना ।
डा. आंबेडकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्ेस की ओर से अछूतनों के अक्धकारनों के प्रक्त प्रक्तबद्धता की कमी के कड़े आलोचक थे और 1932 के तथाकक््त पूना समझौते के परिणाम ने उन्हें एक कठोर आलोचक बना क्दया । दक्लतनों को आज भी लगता है क्क गांधी ने पृथक क्िवा्वक्चका के अक्धकार को नकारकर उनके साथ क्वशवासघात क्कया, क्जसका अर्थ उनके क्लए वास्तविक राजनीक्तक शन््त था । गांधी ने चार प्रमुख समूहनों के वर्ण क्सद्धांत का कभी खंडन नहीं क्कया, हालांक्क उत्हनोंिे वणयों से नीचे के समूह के क्वचार के क्वरुद्ध लड़ाई लड़ी और सभी वणयों को समान माना । डा. अंबेडकर ने संपूर्ण जाक्त पदानुरिम को नकार क्दया, और अछूतनों के बीच संस्कृक्तकरण करने यानी अपनी न्स्क्त को ऊपर उठाने के क्लए उच्च वर्ग के रीक्त-रिवाजनों को अपनाने के मौजूदा प्रयास को खारिज कर क्दया ।
महातमा गांधी अछूतनों के अक्धकारनों के क्लए राजनीक्तक लड़ाई में क्वशवास नहीं करते थे और न ही मंक्दर अक्धकारियनों की सहमक्त के क्बिा उनके मंक्दरनों में प्रवेश के प्रयासनों को मंजूरी देते थे । डा. अंबेडकर का मानना था क्क राजनीक्तक शन््त असपृशयता के समाधान का एक क्हससा है । मूलतः, गांधी का क्वशवास हृदय परिवर्तन में था, जबक्क डा. आंबेडकर का भरोसा कानून, राजनीक्तक शन््त और क्शक्षा में था । डा. आंबेडकर ने जाक्त वयवस्ा की असमानता पर कुछ आलोचनातमक रचनाएं क्लखीं और दक्लतनों के पक्ष में आवाज उठाई । क्वश्वविद्यालय पुसतकालय में डा. आंबेडकर द्ारा रक्चत कुल 17 पुसतकें हैं । इनमें से कुछ एक ही शीर्षक की हैं, लेक्कि क्वषयवसतु या भाषा की दृन्ष्ट से अलग-अलग संसकरणनों में उपलबध हैं । डा. अंबेडकर द्ारा रक्चत जाक्त का क्विाश पुसतक मूल रूप 1936 में उदार क्हंदू जाक्त-सुधारकनों के एक समूह के समक्ष क्दया जाने वाला भाषण था । हालांक्क भाषण पढ़िे के बाद उत्हनोंिे उनका क्िमंरिण रद् कर क्दया । यह डा. अंबेडकर की सबसे मौक्लक रचनाओं में से एक है और उनके मूल दर्शन का अधययन करने में रुक्च रखने वाले क्कसी भी व्यक्त को इसे अवशय पढ़िा चाक्हए । �
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