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का जड़ से निराकरण आ्वशयक है । डा . आंबेडकर ने असपृशयता के निराकरण के लिए के्वल सैद्धांतिक दृषषटकोण ही प्रसतुत नहीं किया अपितु उनहोंने अपने विभिन्न आनदोलनों ्व कायगों से लोगों में चेतना जागत करने ए्वं इसके निराकरण के लिए विभिन्न सुझा्व भी प्रेरित किए । उनहोंने असपृशयता निराकरण के लिए सामाजिक , राजनीतिक , आर्थिक , नैतिक , शैक्ठणक आदि सतरों पर रचनातमक कार्यक्रम तथा संगठित अभियान का आग्रह किया ।
डा . आंबेडकर हिनदू समाज तथा हिनदू धर्म की उन आधारभूत मानयताओं के ठ्वरूद्ध थे , जिनके कारण असपृशयता जैसी संकीर्णता का जनम होता है । उनका मानना था कि हिनदू समाज में स्वतंत्ता , समानता तथा नयाय पर आधारित व्यवसथा सथाठपत करने के लिए कठोर नियमों में संशोधन आ्वशयक है । उनहोंने इसके लिए धार्मिक कायगों के लिए ब्ाह्मणों के एकाधिकार को समापत करने का आग्रह किया । उनके अनुसार उन शासत्ों को अधिकारिक नहीं माना जाना चाहिए जो सामाजिक अनयाय का समर्थन करते है ।
डा . आंबेडकर का मानना था कि हिनदू समाज के उतथान के लिए जातीय बंधन समापत किया जाना आ्वशयक है । उनके मत में इसके लिए यह आ्वशयक है कि समाज के विभिन्न जातियों के लोगों के मधय अनतजातितीय ठ्व्वाह होने लगेगा तो जाति व्यवसथा का बंधन स्वत : शिथिल होने लगेगा , कयोंकि विभिन्न जातियों के मधय रकत के मिलने से अपनत्व की भा्वना पैदा होगी । उनहोंने स्वयं अनतजातितीय ठ्व्वाहों तथा सहभोजों को प्रोतसाठहत किया । जब कभी इस प्रकार के अ्वसर उनहें मिलते तो ्वे उनमें अ्वशय ही सम्मिलित होते थे । डा . आंबेडकर का ठ्वश्वास था कि दलितों के उतथान में के्वल उच्च वर्णो की सहानुभूति और सद्भावना ही पर्यापत नहीं है । उनका मत था कि दलितों का तो ्वास्तव में तब उतथान होगा जबकि ्वह स्वयं सक्रिय तथा जागृत होंगे । इसीलिए उनहोंने घोषणा की कि ठरठक्त बनो , आनदोलन चलाओ और संगठित रहो ।
दलित ्वगति की शिक्ा के बारे में डा . आंबेडकर का मत था कि दलितों के अतयाचार तथा उतपीड़न सहन करने तथा ्वततिमान पररषसथठतयों को सनतोषपूर्ण मानकर स्वीकार करने की प्र्वृति का अनत करने के लिए उनमें शिक्ा का प्रसार आ्वशयक है । शिक्ा के माधयम से ही उनहें इस बात का आभास होगा कि ठ्वश्व कितना प्रगतिशील है तथा ्वह कितने पिछड़े हुए है । उनका मानना था कि दलितों को अनयाय , अपमान तथा दबा्व को सहन करने के लिए मजबूर किया जाता है । ्वह इस बात से दुखी थे
कि दलित इस प्रकार की पररषसथठतयों को बिना कुछ कहे स्वीकार कर लेते हैं । ्वह संखया में अधिक होने के बा्वजूद उतपीड़न को सहन कर लेते हैं , जबकि यदि एक अकेली चींटी पर भी पैर रख दिया जाए तो ्वह प्रतिरोध करते हुए काट डालती है । इन पररषसथठतयों को समापत करने के लिए डा . आंबेडकर दलितों में शिक्ा के प्रसार को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे । उनहें के्वल औपचारिक शिक्ा ही नहीं , अपितु अनौपचारिक शिक्ा भी दी जानी चाहिए ।
डा . आंबेडकर का मानना था दलित ्वगति
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