April 2025_DA | Page 15

भी सवामी दयाननद और उनके आर्यसमाजी आन्दोलन के प्रशंसक हमोने के साथ-साथ समालमोचक भी हैं, पर उनहें आर्यनरेश द्र श्री गायकवाड़ और राजर्षि शाहू की तरह आर्यसमाज आन्दोलन के सहरमोवगरों में नहीं खड़ा किया जा सकता । आर्यसमाजी आन्दोलन के डा. आंबेडकर हमेशा से ही हितैषी रहे हैं ।
डा. आंबेडकर के लिए सवामी दयाननद की तुलना में महातमा फुले अधिक आराधर रहे । डा. आंबेडकर ने गलौतम बुधि, सनत कबीर और महातमा फुले की महापुरुष त्रयी कमो अपना गुरु माना है । संसकृत व राष्ट्रभाषा हिनदी की तरह प्रानतीर सतर पर मराठी में काम-काज न कर पाने के कारण महाराष्ट्र में आर्यसमाज का आन्दोलन उतना प्रभावी ढंग से न चल सका जितना कि उतिर भारत में । राजर्षि शाहू महाराज के अनुसार’ रिाह्मण नलौकरशाही’ के कारण महाराष्ट्र में आर्यसमाज का आन्दोलन प्रभावी नहीं हमो सका ।
डा. आंबेडकर की वशषिा में बड़ौदा नरेश जी का सहरमोग रहा है । इंटिर पास करने के बाद डा. आंबेडकर कमो बी. ए., एम. ए., पी. एच, डी., डी. एस. सी.( लनदन), एल. एल. डी., बार-एटि- ला, जैसी उपाधियों से विभूषित और प्रकाणड पषणडत बनाने में आर्यसमाजी आन्दोलन का, प्रतरषि नहीं तमो अप्रतरषि रूप में, अविसमरणीय रमोगदान रहा है । इस बात कमो और कमोई जाने
या न जाने सवरं डा. आंबेडकर जरूर जानते थे । इसलिए भी उनके ग्नथों में आर्यसमाजी आन्दोलन के प्रति विशेष सहानुभूति नजर आती है । जहां आर्य नरेश श्री सयाजीराव गायकवाड़ ने 1912 से 1915 तक डा. भीमराव आंबेडकर कमो उच् विद्ा-विभूषित करने के लिए शिष्यवृवतियां प्रदान कीं और उनहें अमेरिका भेजा,
वहां अपने-आपकमो हृदय से आर्य समाजी कहलानेवाले राजर्षि शाहू महाराज ने भी 1919 से 1922 तक आंबेडकर कमो विदेश जाकर अधररन करने के लिए आर्थिक दृषष्टि से समपूण्य सहरमोग दिया था ।
आर्यनरेश राजर्षि शाहू महाराज ने पत्रकार डा. आंबेडकर के प्रथम पत्र‘ मूकनायक’ के संचालन में भी आर्थिक महायता प्रदान की थी और इतना ही नहीं, 1920 में माणगांव में समपन्न प्रथम असपृशरता परिषद में कमोलहापुर के आर्य नरेश शाहू महाराज ने यह भविष्यवाणी भी की थी कि’ डा. आंबेडकर भारतवर्ष के अखिल भारतीय नेता होंगे ।’ ततकालीन मुमबई राजर के इन दमोनों राजाओं के पास जमो यह उदारमन और उदारदृषष्टि थी, उसकी पृष्ठभूमि में सवामी दयाननद खड़े हुए नजर आते हैं । इन दमोनों ही आर्यनरेशों के अनतःकरण पर निर्विवाद रूप से आर्यसमाजी आन्दोलन की वववशष्टि छाप रही है ।
सवामी श्रधिाननद( 1856-1926) महर्षि
दयाननद के अनुयायी एवं उनकी वशषिा पधिवत कमो मूर्तरूप देने वाले महापुरुष थे । दलितोद्धार एवं जातिपांति उनमूलन में उनका महतवपूर्ण रमोगदान है । डा. आंबेडकर, सवामी श्रधिाननद जी के कारगों से पूर्णतः परिचित थे । अपनी‘ व्हाट कांग्ेस एणड गांधी हैव डन टिू दि अन्टचेबलस’ पुसतक में उनहोंने लिखा है कि‘ सवामी श्रधिाननद दलितों के सर्वश्रेष्ठ सहायक और समर्थक थे । असपृशरता निवारण से समबषनधत( कांग्ेस की) समिति में रहकर यदि उनहें षसथरता से काम करने का अवसर मिल पाता तमो निःसनदेह एक बहुत बड़ी रमोजना आज हमारे सामने ववद्मान हमोती ।’ डा. आंबेडकर ने भारत की राष्ट्रभाषा ्रा हमो, इस पर अपना मत देते हुए संसकृत कमो राष्ट्रभाषा बनाने का प्रसताव किया था । डा. आंबेडकर अपने ज्ान व अनुभव के कारण हिनदू व मुषसलमों की पूरी पूरी आबादी की भारत एवं पाकिसतान में अदला-बदली के समर्थक थे । पाकिसतान बनने पर वहां के मुषसलमों ने दलित हिनदुओं कमो वहां बलपूर्वक रमोक लिया था, जिससे वह उनका मल-मूत्र आदि साफ कर सकें ।
महर्षि दयाननद के विखरात अनुयायी लाला लाजपतराय से आपके गहरे आतमीर समबनध थे । यही कारण था कि अंग्ेजों के बरबरतापूर्ण लाठी प्रहार से लाला जी की मृतरु हमोने पर उनहोंने उनहें अश्रुपूर्ण शबदों में श्रधिांजलि दी थी । डा. आंबेडकर जनवरी, 1913 में बड़ौदा आये थे और यहां उनका दलितोद्धार का कार्यकरने वाले आर्यसमाज के विद्ान पं. आतमाराम अमृतसरी जी से परिचय हुआ । अमृतसरी जी उनहें उपयु्त निवास की वरवसथा हमोने तक अपने साथ आर्यसमाज वडमोदरा में ले आये थे, जहां वह एक सपताह तक उनके साथ रहे थे । सवाभाविक है कि पं. आतमाराम अमृसरी और आर्यसमाज के इस सहवास एवं निकटिता से डा. आंबेडकर कमो आर्यसमाज की विचारधारा कमो जानने व समझने का अवसर मिला हमोगा और उनहोंने आर्यसमाज के दैनिक सनधरा एवं अवनिहमोत्र सहित अनर गतिविधियों कमो भी देखा एवं समझा हमोगा । साथ ही इनकमो करने के कारणों एवं हमोने वाले लाभों कमो भी जाना हमोगा । �
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