April 2024_DA | Page 9

डा . आंबेडकर और सामाजिक

आर्थिक लोकतंत्

डा . नरेंद्र जाधव

डा

. भीम राव आंबेडकर मानवाधिकारों तथा लोकतंरि के प्बल समर्थक थे । ' अखिल भारतीय डिप्ेसड कलासेस ' के अधिवेशन में भाषण करते हुए उनहोंने कहा " मैं यह मानता हूँ कि मनुषयों के बीच संबंधों का निर्धारण करने वाला ' लोकतंरि ' का सिदांि इस दुनिया से लुपि न हो जाए , यह देखने का महतवपूर्ण दायितव हम सभी को उठाना है । यदि हम लोकतंरि में विशवास रखते हैं तो हमें इसके प्ति ईमानदार और निषिावान रहना होगा । केवल लोकतंरि के संबंध में विशवास रखने से काम नहीं चलेगा । अपने किसी भी ककृतय से लोकतंरि के शरिुओं द्ारा सविंरििा , समता और बंधुतव जैसे लोकतंरि के आधारसिंभों को हानि पहुंचाने से भी सुरतक्ि रखना होगा । यह हम सभी का परम कर्तवय
है ।" डा . आंबेडकर की लोकतंरि की संकलपना राजनीतिक सविंरििा , समता तथा बंधुतव की आम संकलपना से अधिक वयापक थी । उनहोंने लोकतंरि के आर्थिक और सामाजिक पहलुओं पर बल दिया और यह कहा कि यदि आर्थिक और सामाजिक लोकतंरि न हुआ तो केवल राजनीतिक लोकतंरि सफल नहीं हो पाएगा ।
लोकतंत् की परिभाषा
डा . आंबेडकर ने अनेक दार्शनिकों , समाजशाकसरियों तथा राजनीतिज्ञों द्ारा की गई लोकतंरि की परिभाषाओं का उललेख किया है । वॉलटर बॅगेहोट की परिभाषा ' चर्चा के माधयम से शासन ' तथा लिंकन की परिभाषा ' जनता का , जनता के लिए जनता द्ारा किया जानेवाला शासन ' वह विशेष रूप से याद करते हैं । तथापि इन बहुश्रुत और रूढ़ परिभाषाओं से भिन्न वह
लोकतंरि को " रकिपात पर निर्भर न करते हुए जनता के आर्थिक और सामाजिक जीवन में कांतिकारी परिवर्तन लानेवाली शासन प्णाली " कहते हैं । वह कहते हैं कि " जिस शासन प्णाली में शासकों द्ारा जनता के आर्थिक और सामाजिक जीवन में आमूल परिवर्तन लाना संभव हो तथा जिनहें जनता भी रकिपात से मुकि बिना शिकायत सवीकार कर ले , उसे मैं लोकतंरि मानता हूं । यही इसकी असली परीक्ा है । यह परीक्ा अतयंि कठिन हो सकती है । परंतु जब आप किसी वसिु के गुण-दोषों का मूलयांकन करते हैं तो आपको कडी- से-कडी कसौटी का प्योग करना ही चाहिए ।" इससे सपषट है कि डा . आंबेडकर लोकतंरि को एक अंतिम लक्य नहीं बकलक वांछित सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन लाने का एक प्भावशाली साधन मानते थे ।
" सामाजिक और आर्थिक लोकतंरि तो
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