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पदकम को माना गया । लेकिन यह सिदांि अंतिम निषकिमा को नहीं वयाखयातयि अथवा सतयातपि करता । सिदांि में समय और शोध के साथ परिवर्तन और परिषकरण भी होता रहता है ।
‘ अनुसूचित जाति और जनजाति : कलयाणकारी योजनाएं और संरक्ण ’ पर विसिार करने से पहले हमें यह तचतनित करना होगा कि आखिर अनुसूचित जाति और जनजाति किसे कहते हैं , भारतीय संविधान में इनके लिए कया प्ावधान हैं और इनकी कया परिभाषा हैं , इनकी अपनी पहचान के मानक कया है अनय समुदायों से यह कैसे अलग-थलग हैं , इनकी विशेषताएं कया हैं , इनके बीच कया-कया समानताएं और विभिन्नताएं हैं ?
अनुसूचित जनजाति और जाति का अधययन
मानवशासरिीय और समाजशासरिीय दृकषटकोण के महतव का रहा है तो ऐसे में यह देखना जरूरी हो जाता है कि इन विषयों में कया कुछ लिखा और पढ़ा गया । जहां तक अनुसूचित जनजाति के प्श्न और पहचान का सवाल हैं तो मानवशासरिी मजूमदार लिखते हैं कि- “ एक जनजाति परिवारों अथवा परिवारों के समूह का संग्ह है जिसका एक सामानय नाम , एक सामानय भू-भाग , एक सामानय भाषा और विवाह , वृतत् या वयवसाय के प्ति कुछ निषेध का पालन , उनमें परसपर आदान-प्दान एवं दायितवों की पारसपरिकता की एक सुतनकशचि वयवसथा विकसित हो गई ।” 1991 की जनगणना आदिवासियों के बारे में बतलाती है कि यह अपने सीमित संसाधनों से केवल जीवित रहना ही सीख सके हैं और आज भी विज्ञान की इस
चकाचौंध एवं सभयिा की होड से अपरिचित हैं । ऐसे ही अपरिचित लोगों का उललेख भारतीय संविधान में अनुसूचित आदिम-जाति या जनजाति के अंतर्गत किया जाता हैं ।
ऐसे में जो मुखय विशेषताएं और विभिन्नताएं जनजातियों के बारे में निकल कर आती हैं , वह कुछ इस प्कार हो सकती हैं- प्तयेक जनजाति की एक भाषा अथवा बोली होती है , उसके समूह का अपना एक नाम होता है , उनका एक तनकशचि भू-भाग होता है , एक संस्कृति होती है , परिवारों का एक समूह होता है , नातेदारी की एक वयवसथा , अपना एक राजनीतिक संगठन , आर्थिक आतमतनभमारता , अंतर्विवाही वयवसथा और एक सामानय निषेध । इसी आधार पर हम जनजातियों विशलेिण और पहचान करते हैं ।
भारत में प्जातीय अधययन का आरमभ 1890
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