April 2023_DA | Page 6

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तक सामाजिक चेतना का विकास भी संभव नहीं हो पाता है । इस प्रकार डॉ . अमबेडकर जनतंत्र को एक जीवन पद्धति के रूप में भी ्िीकार करते हैं , वे वयस्त की श्ेष्ठता पर बल देते हुए सत्् के परिवर्तन को साधन मानते हैं । वे कहते थे कि कुछ संवैधानिक अधिकार देने मात्र से जनतंत्र की नींव प्की नहीं होती । उनकी जनतांत्रिक वयि्र् की कलपर् में ‘ नैतिकता ’ और ‘ सामाजिकता ’ दो प्रमुख मूलय रहे हैं जिनकी प्रासंगिकता वर्तमान समय में बढ़ जाती है । दरअसल आज राजनीति में खींचा-तानी इतनी बढ़ गई है कि राजनैतिक नैतिकता के मूलय गायब से हो गए हैं । हर राजनीतिक दल वोट बैंक को अपनी तरफ करने के लिए राजनीतिक नैतिकता एवं सामाजिकता की दुहाई देते हैं , लेकिन सत्् प्र्सपत के प्च्त इन सिद्धांतों को अमल में नहीं लाते हैं ।
समानता पर विचार : डॉ . अमबेडकर समानता को लेकर काफी प्रतिबद्ध थे । उनका मानना था कि समानता का अधिकार धर्म और जाति से ऊपर होना चाहिए । प्रतयेक वयस्त को विकास के समान अवसर उपल्ध कराना किसी भी समाज की प्रथम और अंतिम नैतिक जिममेदारी होनी चाहिए । अगर समाज इस दायिति का निर्वहन नहीं कर सके तो उसे बदल देना चाहिए । वे मानते थे कि समाज में यह बदलाव सहज नहीं होता है , इसके लिए कई पद्धतियों को अपनाना पड़ता है । आज जब वि्ि एक तरफ आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है तो वहीं दूसरी तरफ वि्ि में असमानता की घटनाएँ भी देखने को मिल रही हैं । इसमें कोई दो राय नही है कि असमानता प्राकृतिक है , जिसके चलते वयस्त रंग , रूप , लमब्ई तथा बुद्धिमता आदि में एक- दूसरे से भिन्न होता है । लेकिन सम्य् मानव द््रा बनायी गई असमानता से है , जिसके तहत एक वर्ग , रंग व जाति का वयस्त अपने आप को अनय से श्ेष्ठ समझ संसाधनों पर अपना अधिकार जमाता है । यूएनओ द््रा इस संदर्भ में प्रति वर्ष र्लीय भेदभाव उनमूलन दिवस मनाया जाता है , जो आज भी समाज में वय्पत असमानता को प्रकट करता है । भारत में इस स्रवत की
गंभीरता को धय्र में रखते हुए संविधान के अंतर्गत अनुचछेद 14 से 18 में समानता का अधिकार का प्रावधान करते हुए समान अवसरों की बात कही गई है । यह समानता सभी को समान अवसर उपल्ध करा सकें , इसके लिए शोषित , दबे-कुचलों के लिए आरक्ण का प्रावधान किया गया । इस प्रकार अमबेडकर के समानता के विचार न सिर्फ उनहें भारत के संदर्भ में , बसलक वि्ि के संदर्भ में भी प्रासंगिक बनाते हैं ।
आर्थिक विचार : दरअसल आज भी भारतीय अर्थवयि्र् में गरीबी , बेरोजगारी , आय एवं संपवत् में वय्पक असमानता , अशिक्् और अकुशल श्म इतय्वद सम्य्एँ वय्पत हैं । अर्थवयि्र् को लेकर डॉ . अमबेडकर के महतिपूर्ण विचार को निम्न बिनदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है-
द प्रॉ्लम ऑफ़ द रुपए : 15 origin and its solution नामक अपनी रचना में डॉ . अमबेडकर ने 1800 से 1893 के दौरान , विनिमय के माधयम के रूप में भारतीय मुद्रा ( रुपये ) के विकास का परीक्ण किया और उपयु्त मौद्रिक वयि्र् के चयन की सम्य् की भी वय्खय् की । आज के समय में जब भारतीय अर्थवयि्र् मुद्रा के अवमूलयर और मुद्र््फीवत की सम्य् से दो-चार हो रही है तो ऐसे में उनके शोध के परिणाम न सिर्फ सम्य्ओं को समझने में महतिपूर्ण हो सकते हैं बसलक वह इसके समाधान को लेकर आगे का मार्ग भी प्रश्त कर सकते हैं ।
अमबेडकर ने 1918 में प्रकाशित अपने लेख भारत में छोटी जोत और उनके उपचार में भारतीय कृषि तंत्र का ्पषट अवलोकन किया । उनहोंने भारतीय कृषि तंत्र का आलोचनातमक परीक्ण करके कुछ महतिपूर्ण परिणाम निकाले , जिनकी प्रासंगिकता आज तक बनी हुई है । उनका मानना था कि यदि कृषि को अनय आर्थिक उद्यमों के समान माना जाए तो बड़ी और छोटी जोतों का भेद समापत हो जाएगा , जिससे कृषि क्ेत्र में खुशहाली आएगी । उनके एक अनय शोध वरिटिश भारत में प्रांतीय वित् का विकास की प्रासंगिकता
आज भी बनी हुई है । उनहोंने इस शोध में देश के विकास के लिए एक सहज कर प्रणाली पर बल दिया । इसके लिए उनहोंने ततक्लीन सरकारी राजकोषीय वयि्र् को ्ितंत्रत कर देने का विचार दिया । भारत में आर्थिक नियोजन तथा समकालीन आर्थिक मुद्ें व दीर्घकाल में भारतीय अर्थवयि्र् को मजबूत बनाने के लिए जिन सं्र्रों को ्ितंत्रता के प्च्त ्र्वपत किया गया उनकी ्र्पना में डॉ . अमबेडकर का अहम योगदान रहा ।
सामाजिक विचार : डॉ अमबेडकर का समपूणना जीवन भारतीय समाज में सुधार के लिए समर्पित था । उनहोंने प्राचीन भारतीय ग्नरों का विशद अधययन कर यह बताने की चेषट् भी की कि भारतीय समाज में वर्ण-वयि्र् , जाति-प्रथा तथा अ्पृ्यता का प्रचलन समाज में कालानतर में आई विकृतियों के कारण उतपन्न हुई है , न कि यह यहाँ के समाज में प्रारमभ से ही विद्यमान थी । सामाजिक क्ेत्र में उनके द््रा किए गए प्रयास किसी भी दृसषटकोण से आधुनिक भारत के निर्माण में भुलाये नहीं जा सकते जिसकी प्रासंगिकता आज तक जीवंत है । सामाजिक क्ेत्र में उनके विचारों की प्रासंगिकता को निम्न बिनदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है-
डॉ अमबेडकर ने वर्ण वयि्र् को अवैज््वरक , अतय्चारपूर्ण , संकीर्ण तथा गरिमाहीन बताते हुए इसकी कटु आलोचना की थी । डॉ अमबेडकर का मत था कि समूह तथा कमजोर िगयों में जितना उग् संघर्ष भारत में है , वैसा वि्ि के किसी अनय देशों में नहीं है । इस वयि्र् में कार्यकुशलता की हानि होती है , ्योंकि जातीय आधार पर वयवत्ियों के क्ययों का पूर्व में ही निर्धारण हो जाता है । अनतज्जातीय
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