April 2023_DA | Page 16

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दुखी और पीड़ित जनों के जीवन में जागृत और प्रकाश लाने के लक्य को अपने जीवन का धयेय बना लिया और इस चिरंजीवी र्षट्र के नवनिर्माण को ही अपना साधय समझा । डॉ अमबेडकर के अनुसार र्षट्र के निर्माण के लिए भूमि , वहां का समाज तथा समाज की श्ेष्ठ परमपरा , यह तीनों अनिवार्य अंग हैं । र्षट्र केवल भौतिक ईकाई नहीं , बसलक र्षट्र एक जीवित आतम् है । यह एक आसतमक सिद्धांत है । इसके लिए आि्यक है कि ्मृवतयों की बहुमूलय विरासत का सामानय अधिकार तथा वर्तमान काल में ि््तविक सहमति । एक र्षट्र की रचना में भूतकालीन यश , वर्तमानकालीन ससममवलत इचछ् , भूतकाल में एक साथ महान कार्य करने के अवसर और भविषय में भी पुनः महान कार्य करने की प्रबल आकांक्् , पूर्णरूपेण गर्भित है । इसके लिए हमने जो तय्ग और कव्ठर्इयां झेली हैं , उनके प्रति हमारा अटूट अनुराग और अपने उत्राधिकारियों को उनहें सौंप देने की प्रबल इचछ् ही एक र्षट्र की रचना करती है ।
डॉ अमबेडकर के र्षट्र पर विचार र्षट्र की परिभाषा करते हुए डॉ अमबेडकर उसके लिए अपरिहार्य ततिों का उललेख करते हैं । र्षट्र के समबनध में जो उनहोंने उद्धत किया है , उसे आदर्श कहा जा सकता है । किसी भी र्षट्र के निर्माण में वहां के समाज का , र्षट्र के समबनध में सुख-दुःख , यश-अपयश के प्रति विचार एक ही जैसा होना चाहिए । र्षट्र के भूतकाल और वर्तमान के प्रति देखने का दृसषटकोण समान होना चाहिए । जिस समाज की र्षट्र के प्रति ऐसी भावना होती है , वही समाज र्षट्र का निर्माण करता हैI डॉ अमबेडकर का विचार है कि र्षट्र एक जीवमान संज्् है और सैकड़ों वर्ष के सतत पररश्म से ्ियंभू प्रकट होता है । वह कहते हैं कि र्षट्रीयता एक सामाजिक चेतना है । एकता के संयु्त भावों का आभास ही र्षट्रीयता है , जिससे वयस्त एक-दूसरे को अपना सगा- समबनधी समझने लगता है । इस र्षट्रीय भावना के दो आयाम है । एक ओर तो यह अपनों में एकता ओर अपनेपन का भाव लाती है , वहीं दूसरी ओर जो अपने सगे नहीं है , उनके प्रति
विरोध भी प्रकट करती है । यह भावना आर्थिक एवं सामाजिक ऊंच-नीच की सभी खाइयों को समापत कर देती है । यही र्षट्रीयता तथा र्षट्रीय भावनाओं का निचोड़ है ।
र्षट्र की शक्त तथा समृद्धि का आधार ्य् है ? जब इसकी चर्चा चल रही है तो हम विचार करें कि र्षट्र की ि््तविक शक्त कहां रहती है ? महान इतिहासकार लेकी के उदाहरण द््रा वह अपनी बात को ्पषट करने का प्रयत्न करते हुए डॉ अमबेडकर कहते हैं कि एक र्षट्र की शक्त ओर समृद्धि की नींव के आधार है-विशुद्ध घरेलू जीवन , वय्पार में ईमानदारी , नैतिकता तथा लोकहित के उच् ्तर , सादा जीवन , साहस , सच््ई तथा निर्णय में तर्क ओर उदारता का निश्चत पुट , जिसमें चरित्र तथा बौद्धिक प्रतिभा का समान योगदान हो । यदि आप किसी र्षट्र के भविषय के लिए एक बुद्धिमत्् पूर्ण निर्णय करते हैं तो धय्र से यह देखिए कि इन गुणों का उतकषना हो रहा है या अपकर्ष । ्य् चरित्र का महति बढ़ रहा है या घट रहा है ? जो लोग र्षट्र में सिवोच् पद पर आसीन है , ्य् वह उन लोगों में से हैं , जिनका नाम निजी जीवन में प्टटी का लिहाज किये बिना सक्म , पारखी लोग सच्ी श्द्ध् के साथ लेते हैं ? ्य् वह सच्े वि्ि्स वाले , सुसंगत छवि वाले तथा निर्विवाद सतयवरष्ठा वाले वयस्त हैं ? केवल इस धारा को देखकर ही आप किसी र्षट्र की जनमपत्री तैयार कर सकते हैं ।
जातिवाद ने र्षट्र को बनाया दुर्बल भारत को एक अग्णी र्षट्र के रूप में देखने वाले बाबा साहब ऐसे ही महापुरुष थे , जिनहोंने अपने वयस्तगत जीवन की सभी महति्कांक््ओ को ्ठोकर मार कर अपने दुखी और पीड़ित जनों के जीवन में जागृति और प्रकाश लाने तथा जातिवाद की विसंगतियों के प्रति जागृत करने को अपने जीवन का धयेय बनना लिया और इस चिरंजीवी र्षट्र के नवनिर्माण को ही अपना साधय बनाया । डॉ अमबेडकर का मानना था के जातिवाद के जहर ने समाज को बांटा है तथा र्षट्र को दुर्बल और जर्जर बनाया है । जातिभेद को आतम्-परमातम् के सर्ववय्पी सिद्धांत की
अवहेलना के रूप में देखने वाले डॉ अमबेडकर का कहना था कि जातिभेद अब बंद होना चाहिए और यह ्िीकार किया जाना चाहिए कि अनुसूचित जातियों के हिनदू भी उतने ही आ्र्ि्र हिनदू है , जितना कोई अनय हिनदू है । जातिवाद को तय्ग कर र्षट्रवाद की सोच को सामने रखने वाले डॉ अमबेडकर की दृसषट में र्षट्रवाद सिवोपरि था । कोई भी विषय हो , बाबा साहब उसका र्षट्रीय हित में ही वि्लेषण करते थे । वह किसी एक जाति के नेता नहीं थे . बसलक वह समग् समाज की चिंता करते थे । वह दूरदशटी थे और उनका दृसषटकोण वय्पक था । अनुसूचित जाति के लोगों के हित चिंतन में उनको मात्र उनहीं लोटो के हितों से बांधकर नहीं रखा और इसी कारण समपूणना समाज की उन्नति को ही र्षट्र की उन्नति का आधार माना । ि््ति
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