Oct 2024_DA | Page 44

lkfgR ;

अस्मिता की संसकृ ति मं दलित विषयक कविता

l

मकालीन कविता ने अपना एक विशिष्ट मुकाम हासिल किया है जिसे देख कर यह कहा जा सकता है कि भारतीय परिदृशय पर दलित कविता ने अपनी उपपसथवत दर्ज करके सामाजिक संवेदना में बदलाव की प्रवरिया तेज की है । दलित कविता के इस सिरूप ने वनपशचत ही भारतीय मानस की सोच को बदला है । दलित कविता आननद या रसासिादन की चीज नहीं है । बपलक कविता के माधयम से मानवीय पक्ों को उजागर करते हुए मनुष्यता के सरोकारों और मनुष्यता के पक् में खड़ा होना है । मनुष्य और प्रककृवत , भार्ा और संवेदना का गहरा रिशता है , जिसे दलित कविता ने अपने गहरे सरोकारों के साथ जोडा है ।
दलित विर्यक कविता ने अपनी एक विकास -यात्रा तय की है , जिसमें वैचारिकता , जीवन- संघर््ग , विद्रोह , आरिोश , नकार , प्रेम , सांस्कृतिक छदम , राजनीतिक प्रपंच , वर्ण- विद्वेष , जाति के सवाल , सावहपतयक छल आदि विर्य बार-बार दसतक देते हैं , जो दलित कविता की विकास -यात्रा के विभिन्न पड़ाव से होकर गुजरते हैं । दलित कवि के मूल में मनुष्य होता है , तो वह उतपीड़न और असमानता के प्रति अपना विरोध दर्ज करेगा ही । जिसमें आरिोश आना सिाभाविक परिणिति है । जो दलित कवि की अभिवयप्त को यथार्थ के निकट ले जाती है । उसके अपने अंतर्विरोध भी हैं , जो कविता में छिपते नहीं हैं , बपलक सिाभाविक रूप से अभिवय्त होते हैं । दलित कविता का जो प्रभाव और उसकी उतपवत् है , जो आज भी जीवन पर लगातार आरिमण कर रही है । इसी लिए कहा जाता है कि दलित कविता मानवीय मूलयों और मनुष्य की अपसमता के साथ खडी है ।
जिस विर्मतामूलक समाज में एक दलित संघर््गरत हैं , वहां मनुष्य की मनुष्यता की बात करना अकलपनीय लगता है । इसी लिए सामाजिकता में समताभाव को मानवीय पक् में परिवर्तित करना दलित कविता की आंतरिक अनुभूति है , जिसे अभिवय्त करने में गहन वेदना से गुजरना पडता है । भारतीय जीवन का सांस्कृतिक पक् दलित को उसके भीतर हीनता बोध पैदा करते रहने में ही अपना श्रेष्ठति पाता है । लेकिन एक दलित के लिए यह श्रेष्ठति दासता और गुलामी का प्रतीक है । जिसके लिए हर पल दलित को अपने ‘ सि ’ की ही नहीं समूचे दलित समाज की पीड़ादायक पसथवतयों से गुजरना पड़ता है ।
हिनदी आलोचक कविता को जिस रूप में भी ग्हण करें और सावहपतयक मापदंडों से उसकी वयाखया करें , लेकिन दलित जीवन की त्रासद पसथवतयां उसे संसपश्ग किये बगैर ही निकल जाती हैं । इसी लिए वह आलोचक अपनी बौद्धिकता के छदम में दलित कविता पर कुछ ऎसे आरोपण करता है कि दलित कविता में भटकाव की गुंजाईश बनने की पसथवतयां उतपन्न होने की संभावनायें दिखाई देने लगती हैं । इसी लिए दलित कविता को डा . अमबेिकर के जीवन- दर्शन , अतीत की भयावहता और बुद्ध के मानवीय दर्शन को हर पल सामने रखने की जरूरत पडती है , जिसके बगैर दलित कविता का सामाजिक पक् कमजोर पडने लगता है ।
समाज में रचा-बसा ‘ विद्वेष ’ रूप बदल – बदल कर झांसा देता है । दलित कवि के सामने ऎसी भयावह पसथवतयां निर्मित करने के अनेक प्रमाण हर रोज सामने आते हैं , जिनके बीच अपना रासता ढटूंढना आसान नहीं होता है । सभयता
, संस्कृति के घिनौने सड़यंत्र लुभावने शबदों से भरमाने का काम करते हैं । जहां नैतिकता , अनैतिकता और जीवन मूलयों के बीच फर्क करना मुपशकल हो जाता है , फिर भी नाउममीदी नहीं है । एक दलित कवि की यही कोशिश होती है कि इस भयावह त्रासदी से मनुष्य सितंत्र होकर प्रेम और भाईचारे की ओर कदम बढाये , जिसका अभाव हजारों साल से साहितय और समाज में दिखाई देता रहा है ।
दलित कविता निजता से जयादा सामाजिकता को महत्ा देती है । इसी लिए दलित कविता का समूचा संघर््ग सामाजिकता के लिए है । दलित कविता का सामाजिक यथार्थ , जीवन संघर््ग और उसकी चेतना की आंच पर तपकर पारमपरिक मानयताओं के विरुद्ध विद्रोह और नकार के रूप में अभिवय्त होता है । यही उसका केनद्रीय भाव
44 vDVwcj 2024