संपादकीय
हिंददू दलित और मतान्ध अत्ाचारी मुस्लिम भीड़
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सी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्ा में सत्ा मिलने पर नेतृतवकर्ता से अपेक्ा की जाती है कि वह लोकतंरि और संविधान के दा्यरे में रहकर सकारातमक नीति और रणनीति के आधार पर जनकल्याण सुमनन््चित करेगा । लेकिन पन््चिम बंगाल की न्स्मत्यों को देखकर ऐसा नहीं लगता कि सत्ाशीर्ष जनकल्याण के सकारातमक मवचिार के आधार पर काम कर रहा है । राज्य के मुस्लिम बाहुल्य जिलों में महत्ददू विरोधी हिंसा बढ़ती जा रही है । महत्ददू विरोधी हिंसा का सर्वाधिक नकारातमक परिणाम दलित, आदिवासी, पिछड़े एवं वंमचित वर्ग के लोगों को भुगतना पड़ रहा है । अराजक और हिंसक भीड़ के निशाने पर पुरुष तो होते ही हैं, पर महिलाओं को भी बड़ी कीमत चिुकानी पड़ रही हैं । राज्य में दलितों, पिछड़ों, आदिवामस्यों के विरुद्ध हो रही रकतरंजित घटनाओं को ममता सरकार " छिटपुट होने वाले आपसी संघर्ष " के रूप में बता कर मुस्लिम तुन््टकरण की सीमाओं को पार कर चिुकी हैं । मतान्ध और उन्मादित भीड़ में बड़ी संख्या में घुसपैठ करके राज्य में अवैध रूप से रह रहे बांगलादेशी एवं रोहिंग्या मुस्लिमों की संलिपतता कई बार सामने आ चिुकी है, लेकिन ममता सरकार और उनका प्रशासन कोई ठोस एवं कठोर कार्रवाई करने के स्ान पर मदूक दर्शक ही बना रहता है । राज्य के नगरी्य क्ेरिों से लेकर ग्ामीण क्ेरिों में लगातार हो रही घटनाओं से दलित वर्ग के बीचि भ्य का माहोल प्रत्यक् रूप से देखा जा सकता है । सरकारी तंरि की विफलता का एक नमदूना मुर्शिदाबाद में केंद्रीय बलों की तैनाती होने के बाद सुधर रही न्स्मत्यों के रूप में देखा जा सकता है ।
पन््चिम बंगाल में दलित, पिछड़े, आदिवासी वर्ग के विरुद्ध होने वाली हिंसा ममता राज में तो हो ही रही है, किन्तु मुख्यमंरिी ममता से पहले ज्योति बसु ने भी मुस्लिम संरक्ण की नीति अपनाकर तीन दशक से अधिक सम्य तक सत्ा का लाभ उठा्या । दलित अभी भदूले नहीं हैं कि 46 वर्ष पहले वामपंथ के कथित कांमतकारी कामरेड ज्योति बसु की सरकार ने किस तरह से दलितों-वंमचितों
की जघत््य हत्या कराई थी । मरीचिझापी नरसंहार के नाम से कुख्यात ्यह नरसंहार 31 जनवरी 1979 को हुआ । ततकालीन सम्य में राज्य के मुख्यमंरिी बसु ने बांगलादेश से भाग कर आए हजारों दलितों, पिछड़ों, आदिवामस्यों एवं वंमचित वर्ग के शरणार्ता्यों को मरीचिझापी द्ीप में बंधक बनाकर रखा । इसके बाद मरीचिझापी द्ीप की घेरा बंदी करके 31 जनवरी 1979 को पुलिस ने ताबड़तोड़ फा्यरिंग की, जिसमें हजारों दलितों की मौत हुई, लेकिन सरकारी दसतावेजों में सिर्फ दो लोग की मौत होने का दावा मक्या ग्या । द्ीप में नरसंहार का सिलसिला कई माह तक जारी रहा । मृतकों में उत्र प्रदेश, बिहार सहित अत््य राज्यों के वह दलित भी शामिल थे, जो रोजगार के लिए पन््चिम बंगाल गए थे, लेकिन उन्हें भी शरणार्ता्यों के साथ बंधक बना कर मार मद्या ग्या । बेशममी ्यह रही कि बसु सरकार ने नरसंहार की घटना को दबाने का पदूरा प्र्यास मक्या और काफी हद तक इसमें सफल भी रही ।
बांगलादेश से लेकर पन््चिम बंगाल तक हिन्दुओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा का एक पहलदू ्यह भी है कि उन्मादित मुस्लिम भीड़ द्ारा दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग को जानबदूझकर निशाना बना्या जा रहा है, जिससे भ्यादोहन करके उनका मतांतरण करा्या जा सके । मतांतरण के कुटिल उद्े््य को पदूरा करने के लिए भ्यादोहन, हिंसा, आगजनी, लदूट, हत्या की रणनीति नई नहीं है । इसी रणनीति की दम पर गत बारह सौ वरषों के दौरान मुस्लिमों की संख्या को सुमन्योजित रूप से बढ़ाने का जो काम मक्या ग्या, वह 21वीं सदी में भी जारी है । महत्ददू धर्म की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक व्यवस्ा को खंडित करके मतांतरण के उद्े््य से फैलाई जा रही हिंसा से पीड़ित दलित, पिछड़े एवं आदिवासी वर्ग को ममता सरकार से न तो कोई उममीद थी और न ही है । ऐसे में हिंसा से बचिने के लिए बड़ी संख्या में घर छोड़कर ददूसरे स्ानों पर शरण लिए हुए दलितों की दृन््ट केंद् सरकार पर लगी हुई है ।
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