July 2025_DA | Page 3

संपादकीय

संविधान की मूल प्रस्ािना में परिवर्तन क्यों? ck

बा साहब डा. भीम राव आंबेडकर ने भारत के संविधान को जब अंतिम रूप दिया था, तो संविधान की मूल प्रसतावना में न तो धर्मनिरपेक्ष शबि को शामिल किया गया था और न ही समाजवादी शबि को । इसके पीछे कारण यह था कि डा. आंबेडकर भारत को संविधान सममत देश के रूप में सथावपत करने की इचछाशक्त रखते थे । इसके बावजूद आपातकाल के समय संविधान में 42वें संशोधन( 1976) के माधयम से ' धर्मनिरपेक्ष ' और ' समाजवादी ' शबिों को जोड़ दिया गया । इंदिरा गांधी ने ऐसा ्यों किया? इसके पीछे कई तर्क दशकों से दिए जाते आ रहे हैं । लेकिन वासतविकता में दोनों शबिों को संविधान में सकममवलत करने के पीछे वोटबैंक और कुससी को बचाने की वह रणनीति थी, जिस रणनीति को भविषय की दृकषट से धयान रखकर तैयार किया गया था । एक तरफ कांग्ेस नेता के रूप में इंदिरा गांधी ने गरीब, दलित, आदिवासी सहित हर वर्ग को सिर्फ वोट बैंक की दृकषट से इसतेमाल किया, वहीं संविधान में जोड़े गए शबिों के माधयम से वामपंथियों एवं मुकसलम-ईसाई वोट बैंक को बढ़ावा देने का काम किया ।
हद यह भी है कि संविधान की दुहाई देकर नयाय करने वाला देश का उच्चतम नयायालय भी उस याचिका को खारिज कर देता है, जिस याचिका में संविधान की प्रसतावना से ' समाजवादी ' और ' धर्मनिरपेक्ष ' शबिों को हटाने की मांग की जाती है । ऐसी उममीि बाबा साहब डा. आंबेडकर से लेकर संविधान की रचना करने वाली संविधान सभा के किसी सदसय ने उस समय नहीं की होगी कि सत्ा बचाए रखने के लिए संविधान में मनमाने ढंग से परिवर्तन किए जाएंगे और देश का उच्चतम नयायालय भी इस मसले पर विचार करने की आवशयकता नहीं महसूस करेगा । लेकिन इस गंभीर प्रश्न पर विचार करना ही होगा कि आखिर संविधान की मूल प्रसतावना में परिवर्तन ्यों और किस आधार पर किया गया? ्या ' समाजवादी ' और ' धर्मनिरपेक्ष ' शबिों को संविधान में मनमाने तरीके से शामिल करना गैर आवशयक एवं अवैध नहीं है? ्या यह दोनों शबि देश की जनता की निजी सवतंत्रता और धार्मिक भावनाओं पर असर नहीं डालते हैं? और ्या दोनों शबिों को हटा नहीं दिया जाना चाहिए?
ऐसे कई प्रश्नों को लेकर देश में एक नया विमर्श खड़ा हो चुका
है । अधिकांश लोग जहां यह मानते है कि संविधान की मूल प्रसतावना को उसके मूल सवरूप में ही लागू किया जाना चाहिए, जबकि विरोधी यह तर्क देते हुए घूम रहे हैं कि इससे देश में नया संकट पैदा होगा । विरोधियों के पास इस प्रश्न का कोई उत्र नहीं है कि विशव के किसी भी लोकताकनत्रक देश ने अपने संविधान की मूल प्रसतावना में कोई परिवर्तन नहीं किया तो भारत में ऐसा ्यों हुआ? यह विरोधियों अर्थात कांग्ेस, कांग्ेस के सहयोगी, वामपंथी एवं उनके गिरोध की असलियत बताने के लिए काफी है, जो बाबा साहब डा. आंबेडकर के नाम पर संविधान की प्रति को ' जेब ' में रखकर दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के बीच में जाकर लगातार यह दावा करते आ रहे हैं कि मोदी सरकार के राज में ' संविधान नषट हो जाएगा '।
जनता को भ्रमित करके सत्ा की मलाई हासिल करने के लिए एकजुट विपक्षी दल प्रधानमंत्री मोदी पर मनगढंत, फजसी एवं भ्रामक आरोप लगाकर सत्ा पाने की कोशिश तो कर रहे हैं । लेकिन वह यह भी देख रहे हैं कि मात्र गयारह वर्ष के कार्यकाल में मोदी सरकार ने देश की दिशा एवं दशा दोनों को बदल कर रख दिया है । वैकशवक सतर पर भारत जहां नेतृतवकर्ता के रूप में सामने आया है, वहीं देश में विकास के नए-नए कीर्तिमान सथावपत हो रहे हैं । आपातकाल लगाकर सत्ा बचाने वाली कांग्ेस की नेता इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ जैसे नारे की आड़ में सिर्फ कुससी हासिल की थी, वहीं मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान वासतव में जो कार्य हुआ, उसका परिणाम विशव बैंक की उस ताजी रिपोर्ट में देखा जा सकता है, जिसमें बताया गया है कि भारत ने गयारह वरषों में अतयवधक गरीबी को कम करने में जबरदसत प्रगति की है । 2011-12 में देश की अतयवधक गरीबी दर 27.1 प्रतिशत थी, जो 2022-23 में घटकर सिर्फ 5.3 प्रतिशत रह गई अर्थात लगभग 269 मिलियन( 26.9 करोड़) भारतीय गरीबी से बाहर आ गए हैं । गरीबी से बाहर आने वालों लोगों में अधिकांश दलित, आदिवासी एवं वंचित वर्ग के हैं । इसके बाद भी संविधान की दुहाई देकर विपक्ष जनता को भ्रमित करके जिस तरह से सत्ा हासिल करने की पुरजोर रणनीति पर काम कर रहा है, वह विपक्ष के लिए अचछे संकेत नहीं देता है और जनता भी विपक्ष के थोथले आरोपों का सतय समझ रही है ।
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