जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिका / Jankriti International Magazine( बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125वीं जयंिी पर समतपिि अंक)
ISSN 2454-2725
जनकृ ति अंिरराष्ट्रीय पतिक
( बाबा साहब डॉ. भीमराव
-अनामिका
भारतीय समाज संस्कारों का समाज है. जन्म से लेकर मृत्यु तक ससलससले से सिधान हैं. यह सारे सिधान िैज्ञासनक संबद्धता एिं मनोसिज्ञान पर आधाररत है. जैसे-जैसे हम सिकास की ओर बढ़ रहे हैं, िैसे-िैसे कामयाबी के साथ
चुनौसतयां हमारे समक्ष बडी से बडी होती जा रही हैं. यह एक सच है तो एक सच यह भी है सक इन संस्कारों में कई ऐसी रीसत-ररिाज और परम्परा में कु छ ऐसी भी हैं जो समाज के समग्र सिकास को रोकती हैं. इनमें से एक है बाल सििाह. िह एक समय था जब बाल सििाह की असनिा यता रही होगी लेसकन आज के समय में बाल सििाह लडसकयों के सलए जंजीर की तरह है. समय के साथ कदमताल करती लडसकयां अंतररक्ष में जा रही हैं. सत्ता और शासन सम्हाल रही हैं. खेल और ससनेमा के मैदान में अपनी सशक्त उपसस्थसत दजय करा रही हैं. ऐसे में उन्हें बाल सििाह के बंधन में बांध देना अनुसचत ही नहीं, गैर-कानूनी भी है.
सकती है सक यह चुनौती बडी नहीं है और स दासयत्ि है सक िह आगे बढक़र समाज को रूस बाल सििाह की सबसे बडी चुनौती है लोगों म समाज को अिगत कराने की जरूरत है. यह क होगा. बाल सििाह एक असभशाप ही नहीं ह उनका समग्र सिकास नहीं हो पाता है. स्ियंस रोकने की औपचाररकता पूणय ना करें बसकक प समस्या नहीं, ऐसी कोई चुनौती नहीं जो हमारे
बाल सििाह का सबसे बडा दोष असशक्षा है. सिकास के तमाम दािे-प्रसतदािे के बाद भी हर िषय बडी संख्या में बाल सििाह होने की सूचना समलती है. यह दुभायग्यजनक है और यह दुभायग्य के िल ग्रामीण समाज के सहस्से में नहीं है बसकक शहरी समाज भी इस दुभायग्य का सशकार है. असशक्षा के साथ संकीणय सोच भी इस सदशा में अपना काम करती है. भारतीय ग्रामीण समाज असशक्षा के साथ ही आसथयक संकटों से सघरे रहने के कारण िह कम उम्र में सबसटया का ब्याह कर सजम्मेदारी से मुक्त होना चाहता है लेसकन शहरी समाज के पास सभी सकस्म के स्रोत होने के बािजूद स्ियं को इस असभशाप से मुक्त रखने की इच्छाशसक्त शेष नहीं है. कु तकय यह भी सदया जाता है सक ब्याह के पहले लडसकयां असुरसक्षत रहती हैं और ब्याह हो जाने से असमासजक तत्िों से िह सुरसक्षत रहती है. अब यह बात कौन समझाए सक भारत में मसहलाओं के साथ रेप के जो आंकडे आते हैं, उनमें ब्याहता औरतों की संख्या बडी होती है.
बाल सििाह समाप्त करने की बडी चुनौसतयों के बीच सरकारों द्वारा लगातार सकए जा रहे प्रयासों को सफलता भी समली है. सफलता के प्रसतशत पर ना जाएं तो संभािनाओं के द्वार जरूर खुलते सदख रहे हैं. के न्र से लेकर राज्यों में सरकारों द्वारा बेसटयों की सशक्षा, सशसक्तकरण और उनके सलए सुनहरे भसिष्य को सुसनसित करते अनेक योजनओं का संचालन
सकया जा रहा है. सबगडते सलंगानुपात समाज के सलए सचंता का सिषय है क्योंसक बाल सििाह के पूिय अनेक बसच्चयों को जनम से पूिय या जन्म के तत्काल बाद मार सदया जाता था. शासकीय योजनाओं का लाभ समलने के बाद समाज की सोच में पररितयन सदखने लगा है. माता-सपता अब बसच्चयों को लेकर सनसिंत होने लगे हैं. अपनी बेसटयों की पढ़ाई पर उन्हें आसथयक प्रबंध नहीं करना पडता है और ना ही उनके शादी-ब्याह की सचंता करनी होती है. इस तरह अनेक शासकीय योजनाओं बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ की सोच ने जनमानस को बदला है.
यह सच है सक शासकीय योजनाओं से जनमानस की सोच बदली है तो यह भी एक सच है सक शासकीय योजनाएं जरूरतमंदों तक पह ंि ही नहीं रही हैं. शासकीय तंत्र की काययिाही इतनी जसटल है सक जानते हए भी कई बार आम आदमी इन योजनाओं का लाभ लेने से पीछे हट जाता है. कोई एक रास्ता ऐसा सनकालना होगा सक बेसटयों का हक उन तक सहज रूप से पह ंच सके. सबचौसलयों की प्रथा पर सरकारों को सनयंत्रण पाने की जरूरत होगी. उम्मीद की जा
Vol. 2, issue 14, April 2016. वर्ष 2, अंक 14, अप्रैल 2016. Vol. 2, issue 14, April 2016.