Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 70

िोध-सिमिक / Research Discourse
Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN: 2454-2725

िोध-सिमिक / Research Discourse

सहमाचल प्रदेि सिश्वसिद्यालय के १२४ िे उन्द्मुखी कायकिम के िभी प्रसतभासगयों के पीएच. डी. िोध प्रबंध में उसल्लसखत पररकल्पनाएँ( Hypothesis), उद्देश्य( Objectives), एिं सनष्ट्कषक( Findings) का स्िरुप: एक अिलोकन
प्रस्तािना एिं सिषय चयन का महयि
डॉ. रमा प्रकाि निले डॉ. प्रेरणा पाण्डेय
डॉ. मंजु पुरी
मपछले कई सालों से अध्ययन – अध्यापन करते समय तथा शोधामथायों से शोध काया करवाते समय यह ध्यान में आया मक शोधाथी अनुसंधान प्रमवमध से पररमचत नहीं होता । यमद अनुसंधान प्रमवमध से पररमचत होता है तो पररकल्पनाओं( Hypothesis) के बारे में वह जानता नहीं है । पररकल्पनाएँ अथाात क्या? पररकल्पनाओंका स्वरूप क्या होता है? पररकल्पनाएँ मकस तरह मलखी जाती हैं? इन पररकल्पनाओं का शोधकाया में क्या महत्व है? – इन सारी बातों के प्रमत शोधकत ा अनमभज्ञ होता है । शोधकाया का प्रारंभ वास्तव में मन में उठी मकसी मजज्ञासा, मकसी प्रश्न या कोई समस्या से होता है । मजज्ञासा ही शोधाथी को शोधकाया करने के मलए बाध्य करती है । प्रश्न का उत्त्तर पाने की ललक शोधाथी को चलाती है और समस्या का समाधान ढूँढे मबना शोधाथी को शामन्त नहीं ममलती । परंतु यह अनुभव है मक न तो शोधाथी के मन में कोई मजज्ञासा
होती है, और न ही उनके मन में कु छ प्रश्न होते हैं और ना ही मकसी समस्या को लेकर शोधाथी मनदेशक के पास आता है । यह मस्थमत अक्सर मदखाई देती है अपवादात्मक रूप में ही कोई शोधाथी, वास्तमवक शोधाथी के रूप में मदखाई देता है । अनुसंधान में मवर्षय चयन का बहुत महत्व होता है । यह एक लंबी प्रमक्रया भी है । शोधाथी पहले कु छ पढ़े, उस मवर्षय में उसकी रूमच बढे तब कही वह उस मवर्षय पर शोध के बारे में सोच सकता है । शोधाथी की मकसी मवर्षय के बारे में सोचने की प्रमक्रया शुरू होना शोध की पहली सीढ़ी है । पंजीकरि के पूवा की यह प्रमक्रया लंबे समय तक चलती है । सोचने की प्रमक्रया के कारि ही अनुसंधानकताा अपनी रूमच के क्षेत्र का चयन कर सकता है । अनुसंधान कताा को अपनी रूमच के क्षेत्र में अध्ययन करने की मस्थमत इस प्रमक्रया से ही मनम ाि हो सकती है और इसी प्रमक्रया के कारि उपयु ाक्त प्रश्न उसके मन में मनममात होते हैं । परन्तु वास्तमवकता कु छ और ही होती है । शोधाथी तो सीधे शोधमनदेशक के पास पहुंचता है और शोधमनदेशक से ही यह कहता है मक –“ कोई आसान मवर्षय आप ही दीमजए; तामक शोधकाया जल्दी से जल्दी पूरा हो जाए ।” शोधमनदेशक को भी अपने शोधामथायों की संख्या बढ़ानी होती है । वह उसे मवर्षय दे देता है और काम शुरू हो जाता है । शोधकाया का प्रारंभ ही उमचत पद्धमत से न होने के कारि न वह पररकल्पनाएँ मलख पाता है और न वह जो काया करने जा रहा है उसका उद्देश्य क्या है इस बात का उसे पता चलता है । अनुसंधान में पररकल्पनाएँ उसके मदमाग में नहीं है, शोधकाया के उद्देश्यों का भी पता नहीं है तब उसके काया में भटकाव आ जाता है । मदशा के अभाव में बार – बार शोध काया छोड़ देने की इच्छा बलवती होती है । कभी – कभी वह अनुसंधान काया पूरा कर नहीं पाता । शोधकाया आनंद देने के बजाए नीरस और उबाऊ लगने लगता है । उपामध पाना उसका लक्ष्य है । इसमलए
Vol. 3, issue 27-29, July-September 2017. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017