Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 48

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725

िासहसययक सिमिक : डायरी

भी तरकीब से भर लेना चाहता था । मैंने पास पड़े
मसगरेट को जला मलया । मैं मोबाइल में मलख मलख
कर ममटाने लगा ... ठीक हूँ , नही नही .... मैं मबलकु ल
डायरी 1
अच्छा हूँ ... नही ... तुम कै सी हो .... ओह्ह ये भी
कै िे हो तुम ?
नही ... hi जैसे कई शब्द उँगमलयो और कीपैड के
गौरि गुप्ता
बीच जगह बना रहे थे । पर मैं कु छ और मलखना चाह
रहा था , यह " कु छ और " मेरे कं ठ के बीचों बीच
अटका था । मैं कमरे के एक कोने में पड़े हुए कु सी पर
जब तुमने वर्षो बाद मैसेज कर के पूछा था , मक कै से
जा कर बैठ गया । मैंने सोचा ये सवाल क्या तुमने भी
हो तुम ? मैं घण्टो मनहारता रहा था मोबाइल स्क्रीन ।
अपने अंदर इतनी ही बेचैनी महसूस करते हुये पूछा
शायद ये सवाल सहज हो तुम्हारे मलये , लेमकन मेरे
होगा । तुम्हारी सहज तस्वीर उभर आयी , मजसमे मेरे
मलये इसका उत्तर दे पाना बहुत कमठन था । समझ नही
महत्वहीनता की कोरी कल्पना थी । मैं मचढ गया ..
पा रहा था मक क्या कहूँ । क्या मेरा यह कह देना की मैं
मसगरेट का कश लेते हुये अंततः मैंने तुम्हारे उस
मबल्कु ल ठीक हूँ , खुद से झूठ बोलना नही होगा । या
सवाल का कोई जबाब नही देने का सोचा । मसगरेट की
यह कह देना की " मैं तुम्हारे मबना कै से ठीक रह
आग मफल्टर के मजतना करीब जा रही थी मैं उतना ही
सकता हूँ " मेरे अहंकार को चोट पहुचाने जैसा नही
खुद को ठंडा महसुस करने लगा । और मैंने उस बोझ
होगा । मै घुट रहा था । तुम्हारे सवाल से नही , खुद के
को हमेशा खत्म कर देने का चुनाव मकया । मैंने तुम्हारा
ढूंढे गये जबाब से ... ऐसा पहली दफा था जब खुद के
नम्बर ब्लॉक कर मदया था ।
ढूंढे गये जबाब , खुद से नये सवाल पैदा कर रहे थे । यह
सवाल जबाब का गुिात्मक प्रमकया मेरे गले के बीचों
डायरी 2
बीच अटका था । मैं फे फड़ो में साँसे भरने की बार बार
( परछाई )
कोमशश कर रहा था । इस सवाल का जबाब हमारे
ररश्ते को नया जन्म दे सकती है " ऐसी सम्भावनाओ
मुझे मेरे परछाई से मशकायत है , वह मेरी ठीक ठीक
से मैं मजतना आशामन्वत था उतना ही डरा हुआ भी
आकृ मत नही बनाती । वह कभी मेरे कद से छोटा तो
मक " मेरे मकसी जबाब से " यह आमखरी संवाद न बन
कभी मेरे कद से बड़ा तो कभी कभी मेरे दोनों पैरों के
कर रह जाये । मफर कही अफ़सोस मुझे पूरी मजंदगी ना
इदा मगदा एक गोला घेरा बना मलया करती है । मैं उससे
मचढ़ाये । मैं ररश्तों की शुरुआत मजतनी कम अक़्ली से
छु पने के मलये पेड़ो की ओट में चला जाता हूँ तो कभी
शुरू करता हूं , उस ररश्ते को बचाने में अपनी पूरी
दीवारों का सहारा लेता हूँ । नजर घुमा कर देखता हूँ वो
तरकीबे लगा देता हूँ । क्योमक मैं मकसी भी ररश्ते को
मेरे सहारा को मुझसे जोड़ कर एक नई आकृ मत गढ़
इतनी आसानी से नही जाने देता । पहली दफा तुमने
रही होती है । मैं भागता हूँ , बेतहाशा , उससे कोसो दूर
हराया था मुझे सालों पहले , मेरे गलमतयों को मबना
मनकल जाना चाहता हूँ , पर उसकी मजद मेरे पैरों में
बताये जाना मकतना आसान था ना तुम्हारे मलये । खैर ,
मलपटी हुई ममलती है ।
इस घुटन से बाहर आने की जल्दी में , मैंने कमरे की
मैंने उससे कई बार कहा , ठीक ठीक महसाब क्यू नही
मखड़मकयों दरवाजे को खोल देना उमचत समझा । पर
लगा लेती , तुम मुझे ठीक वैसा ही क्यू नही पेश करती ,
कोई हवा इस कमरे में क्यू नही आ रही । कमरे के इस
जैसा मैं हूँ । वो कु छ नही बोली , कभी नही बोली , चुप
सन्नाटे में , मैं अपनी धड़कनों को साफ साफ सुन पा
चाप मेरी आकृ मतयां बनाती रही ।
रहा था । मैं अपने अंदर उठे इस खालीपन को मकसी
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 .
वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017