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िासहसययक सिमिक: डायरी |
भी तरकीब से भर लेना चाहता था । मैंने पास पड़े
मसगरेट को जला मलया । मैं मोबाइल में मलख मलख
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कर ममटाने लगा... ठीक हूँ, नही नही.... मैं मबलकु ल | |
डायरी 1 |
अच्छा हूँ... नही... तुम कै सी हो.... ओह्ह ये भी |
कै िे हो तुम? |
नही... hi जैसे कई शब्द उँगमलयो और कीपैड के |
गौरि गुप्ता |
बीच जगह बना रहे थे । पर मैं कु छ और मलखना चाह |
रहा था, यह " कु छ और " मेरे कं ठ के बीचों बीच | |
अटका था । मैं कमरे के एक कोने में पड़े हुए कु सी पर | |
जब तुमने वर्षो बाद मैसेज कर के पूछा था, मक कै से |
जा कर बैठ गया । मैंने सोचा ये सवाल क्या तुमने भी |
हो तुम? मैं घण्टो मनहारता रहा था मोबाइल स्क्रीन । |
अपने अंदर इतनी ही बेचैनी महसूस करते हुये पूछा |
शायद ये सवाल सहज हो तुम्हारे मलये, लेमकन मेरे |
होगा । तुम्हारी सहज तस्वीर उभर आयी, मजसमे मेरे |
मलये इसका उत्तर दे पाना बहुत कमठन था । समझ नही |
महत्वहीनता की कोरी कल्पना थी । मैं मचढ गया.. |
पा रहा था मक क्या कहूँ । क्या मेरा यह कह देना की मैं |
मसगरेट का कश लेते हुये अंततः मैंने तुम्हारे उस |
मबल्कु ल ठीक हूँ, खुद से झूठ बोलना नही होगा । या |
सवाल का कोई जबाब नही देने का सोचा । मसगरेट की |
यह कह देना की " मैं तुम्हारे मबना कै से ठीक रह |
आग मफल्टर के मजतना करीब जा रही थी मैं उतना ही |
सकता हूँ " मेरे अहंकार को चोट पहुचाने जैसा नही |
खुद को ठंडा महसुस करने लगा । और मैंने उस बोझ |
होगा । मै घुट रहा था । तुम्हारे सवाल से नही, खुद के |
को हमेशा खत्म कर देने का चुनाव मकया । मैंने तुम्हारा |
ढूंढे गये जबाब से... ऐसा पहली दफा था जब खुद के |
नम्बर ब्लॉक कर मदया था । |
ढूंढे गये जबाब, खुद से नये सवाल पैदा कर रहे थे । यह | |
सवाल जबाब का गुिात्मक प्रमकया मेरे गले के बीचों |
डायरी 2 |
बीच अटका था । मैं फे फड़ो में साँसे भरने की बार बार |
( परछाई) |
कोमशश कर रहा था । इस सवाल का जबाब हमारे | |
ररश्ते को नया जन्म दे सकती है " ऐसी सम्भावनाओ |
मुझे मेरे परछाई से मशकायत है, वह मेरी ठीक ठीक |
से मैं मजतना आशामन्वत था उतना ही डरा हुआ भी |
आकृ मत नही बनाती । वह कभी मेरे कद से छोटा तो |
मक " मेरे मकसी जबाब से " यह आमखरी संवाद न बन |
कभी मेरे कद से बड़ा तो कभी कभी मेरे दोनों पैरों के |
कर रह जाये । मफर कही अफ़सोस मुझे पूरी मजंदगी ना |
इदा मगदा एक गोला घेरा बना मलया करती है । मैं उससे |
मचढ़ाये । मैं ररश्तों की शुरुआत मजतनी कम अक़्ली से |
छु पने के मलये पेड़ो की ओट में चला जाता हूँ तो कभी |
शुरू करता हूं, उस ररश्ते को बचाने में अपनी पूरी |
दीवारों का सहारा लेता हूँ । नजर घुमा कर देखता हूँ वो |
तरकीबे लगा देता हूँ । क्योमक मैं मकसी भी ररश्ते को |
मेरे सहारा को मुझसे जोड़ कर एक नई आकृ मत गढ़ |
इतनी आसानी से नही जाने देता । पहली दफा तुमने |
रही होती है । मैं भागता हूँ, बेतहाशा, उससे कोसो दूर |
हराया था मुझे सालों पहले, मेरे गलमतयों को मबना |
मनकल जाना चाहता हूँ, पर उसकी मजद मेरे पैरों में |
बताये जाना मकतना आसान था ना तुम्हारे मलये । खैर, |
मलपटी हुई ममलती है । |
इस घुटन से बाहर आने की जल्दी में, मैंने कमरे की |
मैंने उससे कई बार कहा, ठीक ठीक महसाब क्यू नही |
मखड़मकयों दरवाजे को खोल देना उमचत समझा । पर |
लगा लेती, तुम मुझे ठीक वैसा ही क्यू नही पेश करती, |
कोई हवा इस कमरे में क्यू नही आ रही । कमरे के इस |
जैसा मैं हूँ । वो कु छ नही बोली, कभी नही बोली, चुप |
सन्नाटे में, मैं अपनी धड़कनों को साफ साफ सुन पा |
चाप मेरी आकृ मतयां बनाती रही । |
रहा था । मैं अपने अंदर उठे इस खालीपन को मकसी | |
Vol. 3, issue 27-29, July-September 2017. |
वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017 |