Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 356

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
कबीर ने अपनी बात मजस समय , समाज सुधार के पक्ष में रखी थी , उस समय भारत के भूगोल में ऐसा कोई कमव नहीं था जो कबीर की तरह लोकजीवन में प्रचमलत अंधमवश्वासों को चुनौती दे सके । उन्होंने दोनों धमों ( महन्दू और इस्लाम ) को खुली चुनौती दी । क्योंमक दोनों ही धमा जनता के वसूलों के मवपरीत जा रहे थे । इसीमलए कबीर इन धमों के वसूलों का मवरोध मकया । उनका मानना था मक समाज में जो दमलत- उत्पीमड़त लोग हैं उनको धमा के ठेके दारों से अलग मकया जाना चामहए । यह अलगाव इसमलए था मक , कबीरदास उत्तर भारत में मनगु ाि भमक्त आंदोलन के पुरुर्षकताा थे । वह दास्य भमक्त से साधारि जनता को अलग करके मनगु ाि मनरंकार की ओर ले जाना चाहते थे । क्योंमक वह मानते थे मक जो सत्य सृसेी में मवद्यमान है वह सत्य मवश्व के मूल में मवद्यमान रहस्यमयी सत्ता को कि-कि में अनुभूमत मकया जा सकता है , रहस्यवाद के जररए । इसी मवराट सत्ता को लेकर कबीरदास दोनों धमों के धाममाक उन्माद को चुनौती देते थे । और मानव मात्र की एकता और स्वतंत्रता पर बल देते थे । सत्य बात तो यह है मक भारतीय सन्दभा में ऐसा कोई समाजशास्त्री नहीं हुआ जो संत कबीर की तरह सामामजक चेतना और समाज का समाजशास्त्रीय मवश्लेर्षि कर सके । यह बात पूरे दावे के साथ इसमलए कह रहा हूँ क्योंमक भारत में मजस जातीय राजनीमत का तांडव आज के समय में मचा है और जामत-धमा पर ही राजनीमत की जा रही है । उसका लेखा-जोखा कबीर ने अपने समय में कर मदया था । इतना ही नहीं समाज के जातीय आधार पर तो उनका कहना ही कु छ और है ।
तमनक भी भरोसा नहीं था । उन्होंने जो भी कु छ कहा है उसके पीछे उनका भोगा हुआ यथाथा और अनुभव मवद्यमान है । इसीमलए वह डटकर दोनों धमों पर करार व्यंनय मकया करते थे । तभी उनकी सामखयां अपने समय तथा आज के समय का प्रमतरोध करती हैं । कल और आज के बीच एक लकीर खींच दी हैं समय के यथाथा को लेकर और आज प्रासंमगक बन बैठी हैं ।
आज के इस दौर में फासीवादी संस्कृ मतयां मजस तरह अपना बुल्डोजरी मु ँह फै ला रही हैं , वह सब कबीर साहब के यहाँ लगभग सात सौ साल पहले मौजूद था और आज भी है । मजस जातीय समीकरि और धाममाक समीकरि को आधार बना कर भारत मवभाजन मध्यकाल में मकया जा रहा था उसका हजााना हमें आधुमनक भारत में देश स्वतंत्र होने के पिात हमें भुगतना पड़ा । कहने का आशय यह है मक कबीर के समय जामत का बंधन और धमा का बंधन इतना संघनन था मक उसे तोड़ना असंभव था । तभी मैंने ऊपर कहा है मक कबीर के समय का यथाता आज भी बरकरार है । मजस रक्त शुद्धता की वकालत मध्यकाल में कबीर कर रहे थे और एकता की डोर में बांध रहे थे वह आज भी नहीं संभव हो पाई है । आज भी वही खाई समाज में मौजूद है । कबीर को देखें-
" जो तू बाँभन-बाँभनी जाया आन बाट ह्वै क्यों नमह आया ।" 4
आज के सन्दभा में कबीर के मवचार बहुत जीवंत हैं । उन्होंने मजस जातीय संरचना का मवरोध अपने समय में मकया था , उसका मवकराल रूप आज हमारे सामने मौजूद है । ' हररजन दहन ', महन्दू-मुमस्लम के बीच साम्प्रदामयक दंगा इतना भीर्षि रूप लेता जा रहा है मक इससे देश की जनतांमत्रक व्यवस्था ख़तरे की ओर बढ़ती हुई नजर आ रही है । यह मववाद
दरअसल , कबीर ने अपने समय के जीवन-जगत को खुले नेत्रों से देखा था । वे ' आँमखन देखी ' पर मवश्वास करते थे न मक ' कागद लेखी ' पर । क्योंमक कबीर को वेदों , पुरािों और शास्त्रीय परम्परा के अंधमवश्वासों पर साधारि जनता की सामामजक-आमथाक ढांचे को
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017