Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 244

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN: 2454-2725
बन जाता है । वह जीवन जीने के मलए तरह-तरह के संघर्षा करती है ।
जैनेन्द्र मनमित रूप से प्रयोगधमी लेखक हैं त्यागपत्र में वे गांधीवादी सत्याग्रह के मसंद्धांत का प्रयोग नैमतक संबंधो के बीच करते हैं । सत्याग्रह के मसद्धांत के तहत व्यमक्त अपने सत्य के मलए स्वयं को प्रस्तुत करता है और इस प्रस्तुतीकरि में वह हर प्रकार के कसे सहने को तैयार रहता है । मृिाल समाज से समझौता न करते हुए अपने सत्य( प्रेम) पर अमडग रहती है । उसका जीवन भी साममजक व्यवस्था में पररवतान के मलए, स्त्री-पुरुर्ष संबंधों को सही आधार देने के मलए एक प्रकार का सत्याग्रह ही है । जैनेन्द्र के स्त्री-पात्र साममजक-आमथाक रूप से मजबूत न होकर भी समाज में लगातार संघर्षाशील रहे हैं । इस संघर्षा का मूल आधार है, उनकी सत्यता और आत्मबल । अपने आत्म बल के सहारे ही वह सामामजक गंदगी को स्वीकारने का संकल्प लेती है । वह प्रमोद से कहती है-“ सहायता की मैं भूखी नहीं हूँ क्या!... सहायता मुझे इसमलए चामहए की मेरा मन पक्का होता रहे की कोई मुझे कु चले, तो भी मैं कु चली न जाऊं । और इतनी जीमवत रहूँ की उसके पाप के बोझ को भी ले लू और सबके मलए क्षमा प्राथाना करूँ ।”( 1) वह आगे कहती है-“ यह बात तो ठीक है की सत्य को सदा नए प्रयोगों की अपेक्षा है, लेमकन उन प्रयोगों में उन्हीं को पड़ना और डालना चामहए मजनकी जान की अमधक सामाज-दर नहीं रह गयीं है ।” सामामजक व्यवस्था से संघर्षा कर रही मृिाल स्वयं भी सनातनी संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाती है । ममशनरी अस्पताल वाले मामले में मध्यवगीय साममजक संस्कारों में बंधी हुई ही नजर आती है, की प्राि भले ही चले जाएँ पर धमा न जाने पाए ।
प्रयोगशाला बना लेती है । समाज के इतने गहरे और पीड़ादाई अनुभवों के बाद भी जैनेन्द्र के पास इस साममजक व्यवस्था का कोई मवकल्प नजर नहीं आता है । मृिाल जो की मुख्य सामाज द्वारा हामशये पर ढके ली जा चुकी है, जो स्वयं को फामहशा औरत तक कहने को मजबूर है, जहाँ स्त्री जब तक ससुराल की है तभी तक मैके की है, ससुराल से टूटी तब मैके से तो आप ही टूट जाती है । जो कटी पतंग की तरह तमाम सामामजक वगों में डोल रही है । ऐसी दशा में भी वह समाज की सलामती की भावना रखती है वह अपनी हालत का मजम्मेदार खुद को ही मानती है । इस मस्थमत में वह आत्मपीड़न का चुनाव करती है और खुद को मनढाल छोड़ देती है । वह कहती है-“ मैं समाज को तोडना-फोड़ना नहीं चाहती हूँ । समाज टूटा की मफर हम मकसके भीतर बनेंगे? या की मकसके भीतर मबगड़ेंगे? इसमलए मैं इतना ही कर सकती हूँ की समाज से अलग होकर उसकी मंगलकांक्षा में खुद ही टूटती रहूँ ।”( 2)
जैनेन्द्र प्रमोद और मृिाल के माध्यम से स्त्री- पुरुर्ष संबंधों और रूढ़ सामामजकता में पररवतान के आयाम मदखाते हैं । त्यागपत्र में जैनेन्द्र मृिाल के जीवन सम्बन्घी कसेों का विान-मववेचन नहीं करते हैं अमपतु मृिाल की मनः मस्थमत के माध्यम से समस्या को और उसके संभामवत सामाधान को प्रस्तुत करते हैं । प्रमोद का आत्मालाप, आत्मा की बची-खुची आवाज है । यह आवाज मौजूद तो सबके भीतर है पर सब उसे सुन नहीं पाते हैं । इस आवाज को मुखररत करना भी त्यागपत्र का उद्देश्य है, प्रमोद और मृिाल के प्रसंगों द्वारा सामामजक व्यवस्था का जैसा मचत्रि जैनेन्द्र ने मकया है, उसके समाधान में वैसे उत्तर वे नहीं दे पाए हैं । जैनेन्द्र प्रेम को स्त्री-पुरुर्ष संबंधो का आधार तो स्वीकारते हैं,
मृिाल कहीं भी समाज का नकार नहीं
परन्तु साममजक ढांचे के भीतर ही ।
करती है, और अपने जीवन को सामामजक प्रयोग की
उनकी धारिा है की सामाज में व्यमक्त बनता मबगड़ता Vol. 3, issue 27-29, July-September 2017. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017