Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN: 2454-2725
! इसकी दुमनयाँ यही है माता जी कोई आगे नहीं आयेगा मक महजड़ों को पढ़ाओ, मलखाओं, नौकरी दो जैसे कु छ जामतयों के मलए सरकार कर रही है ।” 13
ऐसे संवाद शायद मकन्नरों के यथाथा जीवन पर प्रकाश डाल रहे है । उपन्यास में कहीं-कहीं मकन्नरों से डर संबंधी संवादों को भी उभारा गया है । सावाजमनक स्थलों पर लोग इनसे बात करने और साथ खड़े रहने से भी कतराते है । इन सभी माममाक प्रसंगों का मचत्रि उपन्यास में खुलकर हुआ है मजससे मकन्नर समाज की वास्तमवक पीड़ा से हम रू-ब-रू हो सकते है ।
मकन्नरों की पीड़ा की कु शल अमभव्यमक्त की अगली कड़ी में‘ गुलाम मंडी’ आता है । मनमाला भुरामड़या का यह बहुचमचात उपन्यास मकन्नर मवमशा में अपनी महती भूममका अदा करता है । जमटल मवर्षय को अपने लेखन का कें द्र बनाने वाली मनमाला जी गहनतम संवेदना के स्तर पर गुलामी के दंश को कु शलता से अमभव्यक्त कर पायी है । आज के मतरस्कृ त वगा मकन्नरों की समस्या और मानव तस्करी का भयावह चेहरा उपन्यास में मदखाया गया है । एक ज्वलंत समस्या पर लेखन का प्रयास गुलाम मंडी में मकया गया है, उस सच को बड़ी बारीकी से उघाड़ने का प्रयास मकया गया है मजसे बार-बार दबाने की कोमशश की जाती है । लेमखका अपने अनुभवों को उपन्यास में अमभव्यक्त करती है यथा-“ प्रोजेक्ट आधाररत उपन्यासों से एकदम अलग यह उपन्यास रचनाकार के मूल सरोकारों से सीधा जुड़ा हुआ है, जो पूरी संजीदगी से एक इंसान को इंसान मानने की वकालत करता है... मफर चाहे वह एक मजदूर स्त्री हो या समाज का मतरस्कार झेलने को मजबूर मकन्नर ।” 14
उन लोगों के प्रमत समाज के मतरस्कार को मजन्हें प्रकृ मत ने तयशुदा जेंडर नहीं मदया, उन्हें महजड़ा, मकन्नर, वृहनला आमद कई नामों से पुकारा जाता है मगर अपमान के साथ । लेमखका एक स्थान पर उल्लेख करती है मक“ बचपन से देखती आयी हूँ उन लोगों के प्रमत समाज के मतरस्कार को, मजन्हें प्रकृ मत ने तयशुदा जेंडर नहीं मदया । इसमें इनका क्या दोर्ष? ये क्यों हमेशा त्यागे गए, दुरदुराए गए, सताए गए और अपमान के भागी बने इन्हें कई नामों से पुकारा गया मगर मतरस्कार के साथ ही क्यों? आमखर ये बामक इंसानों की तरह मानवीय गररमा के हकदार क्यों नहीं?” 15 इसमें मकन्नरों के जीवन की त्रासदी और सामामजक उपेक्षा के ददा को बहुत ही माममाकता के साथ उभारा गया है ।
अगला उपन्यास प्रदीप सौरभ का‘ तीसरी ताली’ है । वे उस तीसरी ताली की बात करते है मजसे समाज में मान्यता नहीं ममली है । इस समाज में मजसे हम समाज का महस्सा नहीं मानते, उनकी अपनी समस्याएँ है । जेंडर के अके लेपन और जेंडर के अलगाव के बावजूद समाज में जीने की ललक से भरपूर दुमनयाँ का पररचय करवाता है यह उपन्यास । इसमें ऐसे तमाम सच उभरकर सामने आये हैं, जीवन के ऐसे महत्त्वपूिा सच मजन्हें हम माने या न माने लेमकन उनका अपना वजूद है । यह उपन्यास प्रदीप सौरभ के साहसी लेखन की ओर हमारा ध्यान आकृ से करता है । यह कहानी है गौतम साहब और आनंदी आंटी की, मजनके बच्चा होने पर आये मकन्नरों को दरवाजा नहीं खोलते है इस डर से मक कहीं वे उनके बच्चे को उठाकर न ले जाएँ । बच्चा होने पर ख़ुशी के स्थान पर शोक मनाया जाता है । ऐसे बच्चे के पैदा
Vol. 3, issue 27-29, July-September 2017. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017