Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN: 2454-2725
हो; स्वेद, स्तम्भ, रोमांच, स्वरभंग, कम्प, वैवण्या, अश्रु( प्रलय) आमद आठ सामत्वक भाव का भण्डार हो; संयममत( सदाचारी) योगीजन का मनमनधान( प्रमिधान) हो; कामदेव के बाि के मादन, उन्मादन, प्रक्षोभन, संयोजन एवं सम्मोहन आमद पाँच गुिों जैसा संधानशमक्त हो ।
गृहलक्ष्मी-िणकन
मैमथल स्त्री को दाम्पत्य जीवन में कमठन पररश्रम करना पड़ता है । मैमथल मपतृसत्त्तामक समाज के द्वारा स्थामपत कठोर मनयम और अनुशासन को मैमथल स्त्री पत्नी के रुप में पालन करती है, यथा- पमत को प्रेमपूवाक खाना मखलाना, मु ँह-हाथ को अपने आँचल से पोंछना, पीने के मलए दूध देना, दाँत स्वच्छ करने के मलए सींकी देना,..., पान मखलाकर मुखशुद्ध कराना । यह मैमथल स्त्री के पमतप्रेम और अपूवा कताव्यमनष्ठा के समममश्रि का एक अनोखा स्वरुप है-” िुिणकक चौरा....... मुखिुसि उिमल” [ पृ. िं. 88, पंसक्त िं 5-16 ]
प्रस्तुत पंमक्तयों में कमवशेखराचाया ने मैमथल संस्कृ मत में पगी आदशा गृहलक्ष्मी का स्वरुप दशााते हुए उसके मवशुद्ध दांपत्य, पमत प्रेम-भाव एवं कताव्यपरायिता का उल्लेख मकया है जो पमत के देखभाल के मलए सदैव समामपत रहती है । धमापत्नी का ऐसा अलौमकक और सामत्वक स्वरुप अन्यत्र दूलाभ है । सुन्दरी( पत्नी) सोना के कटोरे को दूध से भरती है तथा मचउरा पर दही देने लगती है । दही काटते समय तथा मलाई टूटने के समय उसका पल्लव स्टश कर-कमल काँपने लगता है एवं बतान स्तंमभत( महलने-डोलने) होने लगता है । सोना के चम्मच से मलाई को उपर से हटाकर शंख स्टश श्वेत दही को पड़ोसती है । मलाई इतनी मचकनी है, मजससे तालु और जीभ में परस्पर मववाद खड़ा हो जाता है । चीन देश से( पंच बनकर) आये एक प्रकार के शका रे( जो बाद में समस्त भारत में चीनी कहलाने
लगा) को देने पर मववाद का अन्त होता है । उसके बाद मुगबा, लमड़बी, सरुआरी, मधुकु पी माठ, फे ना, मतलबा इत्यामद पकवान( ममष्ठान) पड़ोसती है । नायक( पमत) दूध पीता है, हाथ मु ँह धोता है, सींकी से दाँत साफ करता है, नये वस्त्र से हाथ को साफ करता है । उसके बाद, पत्नी तेरह गुिों से युक्त पाँच प्रकार के फलों समहत पान को चाँदी की तस्तरी में पमत को देती है । तत्पिात पमत पान से मु ँह को शुद्ध करने लगता है ।
िेश्या-िणकन विारत्नाकर के चतुथा कल्लोल में वमिात वेश्याविान का प्रसंग प्राचीनकाल से ही मममथलांचल की मस्त्रयों पर हावी पुरुर्ष वचास्ववाद को उजागर करता है; साथ ही उसके नैमतक अधोपतन, दोयम नीमत, अमानवीय और असंस्कृ त मनोवृमत को भी । एक मववश स्त्री को सवाप्रथम पररवार और समाज से मवमछन्न कर उसे एक वमजात स्थान पर रखकर उसे नगरवधू बनाना, अन्धेरे में उसका उपभोग कर यौन सुख प्राप्त करना, पर उजाले में उसका बमहष्ट्कार और मतरस्कार कर समाज में प्रमतमष्ठत बने रहना, यह पुरुर्ष समाज का कै सा पुरुर्षत्व है? यह उसकी कै सी मानवीयता है?
“ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” के इस युग में एक स्त्री को सम्मान देने तथा एक स्वस्थ समाज के मनम ाि के मलए स्त्री-पुरुर्ष में सवाप्रथम पुरुर्ष को ही पूिा जोश, नैमतकता और यथाथा आत्मीयता के साथ अग्रसर होना पड़ेगा तभी समाज और स्त्री का क्रमश: मवकास और कल्याि संभव हो सके गा-
“ अथ िेश्यािण्णकना ।।.... नामे िेश्या देषु” [ पृ. िं. 44-45, पंसक्त िं 21-13 ]
प्रस्तुत पंमक्तयों में लेखक ने वेश्या का विान मकया है । चौराहा के समीप जो नगर है, उसमें सोना के मदवाल से मघरे हुए वगााकार अनेक भवन हैं; मजसमें नगरवधू( पाननामयका), प्रमतनामयका, सखी, सैरसंधरी,
Vol. 3, issue 27-29, July-September 2017. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017