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नाम लक्मीबाई था । सावित्रीबाई फुले ने िड़लकयों और समाज के बहिषकृत हिससों के लोगों को शिक्षा प्िान करने में अग्णी भूमिका निभाई । 5 सितंबर 1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ उनहोंने महिलाओं के लिए एक विद्ािय की सरापना की । एक वर्ष में सावित्रीबाई और महातमा फुले पांच नए विद्ािय खोलने में सफल हुए । ततकािीन सरकार ने इनहे सममालनत भी किया । एक महिला लप्ंलसपल के लिए 1848 में बालिका विद्ािय चलाना कितना मुकशकि रहा होगा , इसकी कलपना शायद आज भी नहीं की जा सकती । िड़लकयों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी । सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं , बकलक दूसरी िड़लकयों के पढ़ने का भी बंदोबसत किया । इसके बाद उनहोंने बेसहारा कसत्रयों के लिए 1848 में एक आश्य सरि की सरापना की और सभी वगषों की समानता के लिए संघर्ष करने वाले जयोलतराव फुले के धर्मसुधारक संसरान सतयशोधक समाज ( 1873 ) का विकास करने में अहम भूमिका निभाई । उनके जीवन को भारत में कसत्रयों के अधिकारों का प्काश सतंभ माना जाता है । उनहें अकसर भारतीय नारी आंदोलन की जननी के रूप में जाना जाता है ।
सावित्रीबाई का जनम भारत के महाराषट्र राजय के छोटे से गांव नायगांव में हुआ । सावित्रीबाई बचपन से ही बहुत जिज्ञासु और महतवाकांक्षी थीं । 1840 में नौ साल की उम्र में सावित्रीबाई का विवाह जयोलतराव फुले से हुआ और वह बलिका वधु बनीं । इसके बाद वह जलि ही उनके साथ पुणे चली गईं । सावित्रीबाई के लिए उनकी सबसे बहुमूलय चीज उनहें एक ईसाई धम्षप्चारक द्ारा दी गई पुसतक थी । उनके सीखने की चाह से प्भावित होकर जयोलतराव फुले ने सावित्रीबाई को पढ़ना-लिखना सिखाया । सावित्रीबाई ने अहमदनगर और पुणे में शिक्षक बनने का प्लशक्षण लिया । वह 1847 में अपनी चौथी परीक्षा उत्ीण्ष करने के बाद एक योगय शिक्षक बनीं ।
देश में कसत्रयों की कसरलत को बदलने के लिए प्लतबद्ध सावित्रीबाई ने जयोलतराव , जो सवयं समाज सुधारक थे , उनके साथ मिलकर 1848 में िड़लकयों के लिए एक विद्ािय खोला । वह भारत की पहली महिला अधयालपका बनीं . इससे समाज में रोष उतपन्न होने लगा । 1853 में सावित्रीबाई और जयोलतराव ने एक शिक्षा समाज की सरापना की , जिसने आस-पास के गांवों में सभी वगषों की िड़लकयों एवं महिलाओं के लिए और अधिक विद्ािय खोले । लेकिन उनकी यात्रा आसान नहीं थी । विद्ािय जाते समय उनहें गालियां दी जाती थीं और उन पर गोबर फेंका जाता था । लेकिन सावित्रीबाई बस अपने साथ हर रोज जो अतिरिकत साड़ी लेकर आती थीं , उसे पहनकर अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाती थीं ।
भारत में विधवाओं की दुर्दशा से सहानुभूति रखते हुए सावित्रीबाई ने 1854 में उनके लिए आश्य सरि खोला । वरषों तक निरंतर सुधार करने के बाद , उनहोंने 1864 में परिवार से निकाली गई बेसहारा कसत्रयों , विधवाओं और बालिका वधुओं के लिए एक बड़े आश्य सरि के निर्माण की राह प्शसत की । उनहोंने उन सभी को शिक्षित किया । उनहोंने इस संसरान में आश्य लेने वाली एक विधवा के बेटे , यशवंतराव को भी गोद लिया । दलित वगषों को गांव के सार्वजनिक कुएं से पानी पीने की मनाही थीI जयोलतराव और सावित्रीबाई ने उनके पानी पीने के लिए अपने घर के पिछवाड़े में एक कुआं खोदा । इस कदम से 1868 में लोगों में आक्रोश उतपन्न हो गया ।
1890 में जयोलतराव का निधन हो गया । सभी सामाजिक नियमों की अवहेलना करते हुए उनहोंने उनकी चिता को अलनि दी । उनहोंने जयोलतराव की विरासत को आगे बढ़ाया और सतयशोधक समाज का पदभार संभाल लिया । 1897 में पूरे महाराषट्र में बोबोनिक अथवा गिलटी पिेग फैल गया । सावित्रीबाई केवल दर्शक नहीं बनी रहीं , बकलक सहायता करने के लिए प्भावित क्षेत्रों में गईं । उनहोंने पिेग से पीलड़त वयककतयों के लिए पुणे के हड़पसर में एक दवाखाना खोला । अपनी बाहों में 10 वरथीय पिेग से पीलड़त बच्चे को असपताल ले जाते समय वह सवयं इस बीमारी का शिकार हो गईं । 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया । उनका जीवन और कार्य भारतीय समाज में सामाजिक सुधार और महिला सशककतकरण का साक्षी है । सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं । हर बिरादरी और धर्म के लिये उनहोंने काम किया । वह आधुनिक युग में अनेक महिला अधिकार कार्यकर्ताओं के लिए प्रेणा बनी हुई हैं । �
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