विरोध करते हैं । चाहे वह वेद हो या कुरान , रसनदि हो या मस्जद , पंडित हो या मौलिवी ।
सामाजिक नयाय की मांग है कि समाज में जनर परमपिा अथिवा विरासत के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए , वर्ण सभी को उनकी योगयरा और श्र के आधार पर प्रगति करने के अवसर चरलिना चाहिए । सभी को समान समझना चाहिए और किसी को अधिकार से वंचित नही किया जाए । किसी भी प्रकार की वेशभूर्ा अथिवा विशेर् ग्िण करने , अपनी श्ेषठरा सिद्ध करने का कोई लिाभ नहीं । सनर कबीर कहते हैं – वैषणव भया तो कया भया बूझा नहीं विवेक । छिाया चरलिक बनाय कर दराधिया लिोक
अनेक ।।
कबीर का समाज-दर्शन अथिवा आदर्श समाज चवर्यक उनकी मानयराएं ठोस यथिाथि्म का आधार लिेकर खडी हैं । अपने समय के सामनरी समाज में जिस प्रकार का शोर्ण दमन और उतपीिन उनिोंने देखा-सुना थिा , उनके मूलि में उनिें सामनरी स्वार्थ एवम धार्मिक पाखणिवाद दिखाई दिया जिसकी पुसषट दार्शनिक सिद्धानरों की भ्ारक वयवस्था से की जाती थिी और जिसका वयकर रूप बाह्याचार एवं कर्मकाणि थिे । कबीर ने समाज वयवस्था सतयरा , सहजता , समता और सदाचार पर आचश्र करना चाहा जिसके परिणाम ्वरूप कथिनी और करनी के अनरि को उनिोंने सामाजिक विकृतियों का मूलिाधार माना और सतयाग्ि पर अवस्थित आदर्श मानव समाज की नींव रखी ।
यह सच्चाई निर्विवाद है कि कबीर आम जनता की वाणी के उद्घोषक हैं । उनकी वाणी का ्फुिण धर्म , वर्ग , रंग , नस्ल , समाज , आचरण , नैतिकता और वयवहार आदि सभी क्षेत्र में हुआ है । यह ्फुिण किसी विशेर् वर्ग , भू -भाग या देश के चलिए नही अपितु मानव मात्र के चलिए है । उनिोंने आम जनता में एकतव स्थापित करने का प्रयास किया है । इसके चलिए जितने शसकरशालिी प्रहार की आवशयकता थिी उसे करने में चुके नहीं । बेखौफ होकर , जहां तक जाना समभव थिा वहां तक जाकर असतय का प्रचरछिडेदन करते हुए सतय के शोधन के माधयर से समाजों को प्रेम के सूत्र में बांधने का प्रयास किया । व्रुर : प्रेम पर आधरित वैचारिक क्ांचर उनका प्रमुख िचथियार थिा । दरअसलि कबीर साहब का मुखय लिक्य मानव कलयाण की प्रतिषठा थिी और इसके चलिए वह युगानुकुलि जैसे भी प्रयत्न समभव थिे उनको प्रयोग करने में हिचकिचाये नहीं । उनके निडर वयसकरतव से जनरे विशवास की यही शसकर उनको हर युग और प्रतयेक समाज में प्रासंगिक बनाए हुए है ।
जब हम कबीर और वर्तमान दचलिर-विमर्श के सनदभ्म में बात करते है तो एक और पिलिू हमें धयान रखना पडता हैं जिसे ओमप्रकाश
वालरीचक के शबदों में इस ढंग से कहा गया है , “ निर्गुण धारा के कवियों विशेर् रूप से कबीर और रैदास की रचनाओं में अंतर्निहित सामाजिक विद्रोह दचलिर लिेखकों के चलिए प्रेरणादायक है । उससे दचलिर लिेखक ऊर्जा करते हैं , लिेकिन वह दचलिर लिेखन का आदर्श नहीं हैं ।” इसके चलिए एक तर्क यह भी दिया जा सकता है की जैसे गांधी और अनय विचारकों के जातपात समबनरी चिनरन उतना परिपकव नही है जितना की डॉ भीम राव आंबेडकर का है । दचलिर-मुसकर के चलिए डॉ आंबेडकर का चिनरन अति आवशयक हैं कयोंकि यह सर्या को गहराई से छिूता है और संघर््म को सकारातरक दिशा देता है । आज के दचलिर लिेखन के चलिए सामाजिक और राजनितिक दृसषटकोण जयादा आवशयक है न की धार्मिक दृसषटकोण । फिर भी कबीर और अनय संतों की वाणी नैतिक विकास में महतवपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है । जिसका एक उदाहरण निम्नचलिचखर है जिसमे बताया गया है कि गुणवान-चालिाक , ढोंगी और धनपतियों से तो हर कोई प्रेम करता है पर सच्चा प्रेम तो वह है जो निस्वार्थ भाव से हो : गुणवेता और द्रवय को , प्रीति करै सब कोय । कबीर प्रीति सो जानिये , इंसे नयािी होय ।। यह एक दुर्भागयपूर्ण सतय है कि भारतीय समाज में जनसंखया के एक बड़डे हि्से को सामाजिक , धार्मिक और आचथि्मक , राजनैतिक और सं्कृचरक अधिकारों से वंचित रखा गया । उसी सताए हुए समाज की पीड़ा की अभिवयसकर का साहितय दचलिर चवर्यक साहितय है । सन अ्सी के दशक के बाद ही यह साहितय मुखर रूप में हमारे सामने आया है । इस साहितय का विकास भारत में बड़ी तेजी से हो रहा है । अकसि दचलिर रचनाओं पर कच्चेपन और अपरिपकवरा का दोर् लिगाया जाता है जिसका प्रमुख कारण यह की अकसि साहितय चलिखते समय साहिसतयक सौनदय्म निर्माण में वे विचार और आदर्श छिुट जाते है जो की दचलिर विमर्श और दचलिर संघर््म के चलिए अति आवशयक है । संघर््म को दिशा देने वालिा साहितय ही वा्रव में आज की हमारी आवशयकता है । �
vDVwcj & uoacj 2022 35