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नहीं । इसके नर्तन , मंचन के पी्छे भावना वही है जो भरत नरे कही है और संस्ककृत के तकरीबन हर नाटक के आरंभ में नांदी वचन के रूप में आती है । '' समय-समय पर वर्षा हो , खरेतों की फसलें इसलियों सरे रहित हों और खलिहान हमाररे कोठों को भरें , गांव-गांव आरोग्य हो , किसी को कोई आधि-व्याधि नहीं हों , गायें और अन्य पशुधन रोग मुक्त हों और पर्याप्त दूध प्दान करें ।'' गौरजा दरेवी के दरबार में यह व्रत लिया जाता है । इसका कलाकार फसल नहीं उजाडता , न मांदल जैसा बाजा जमीं पर रखा जाता है । सभी मद्पान सरे दूर रहतरे हैं । आदमी ही गवरी करतरे हैं और औरतें उनके स्वास्थ्य के लिए
गौरजा के दरबार में इसके लिए प्लतलदन प्ाथदाना करती हैं । चालीस सरे ज्यादा नाटक खरेिरे जाता है । क्या दरेवी-दरेवता की कथा और क्या लोकरंजक आख्यान । नौ ही रस , तांडव और लास्य , पूरा का पूरा काव्य शास् त् , पुराण शास् त् , नाट् शास् त् इसमें दिखाई दरेता है । जन सरे िरेकर अभिजन तक के ख्याल । बूडिया , दो राइयां , भोपा , कुटकडिया । पांच कलाकार मांझी होतरे हैं और बाकी भी वंश परंपरानुसार रमतरे हैं । श्ाद्ध पक्ष तक रमण होता है ।
40 दिनों तक ' बाजा कं धे और बंद सब धंधे '
गवरी की मूल कथा
बात तबकी है जब धरती पर कोई परेड् नहीं । ्छाया कहां लमिरे । नौ लाख दरेलवयां पररेिान । एक उड़तरे हुए सवा माणी के भौररे को दरेखा । पू्छा कि जो परेड नहीं तो तू कहां सरे आया । तू तो फूलों का रसिक है । दरेलवयों को उसनरे बहुत पररेिान होकर बताया कि पाताल में राजा वासुकी की बाड़ी में पेड़ हैं । दरेलवयां पाताल पहुंची । एक एक दरेवी नरे एक एक पेड़ उखाड़ा । वासुकी नरे हजार फन तानकर रास्ता रोक लिया । दरेवी अंबा नरे गुरज उठाया , लगी फन काटनरे । नागिन नरे सुहाग की रक्षा मांगी । दरेलवयों नरे पेड़ चाहरे । वासुकी नरे कहा , धरती के लोग बहुत प्पंची है । पेड़ों पर कुल्हाड़ा चलाएंगरे । दरेवी कहा , राजा जैसल की बाड़ी में रोपेंगरे । राजा जैसल ही रक्षा कररेगा । सर चला जाए तो भी पेड़ नही कटनरे दरेगा । एक एक दरेवी पेड़ िरेकर धरती पर आई । दरेलवयों का नाम भी इसी कारण हआ - पीपल लानरे वाली पीपलाज माता , नीम लानरे वाली नीमज माता , आम वाली अंबा याह आमज माता , खरेर वाली खरेमज माता , उमर वाली उमरा माता , बरगद वाली बड़िी माता । सोचा जाए तो शाकंभरी ,
हिंगलाज , कुष्मांडा माता के नाम भी तो ऐसरे ही हैं ।
खमनोर गांव के पास , उनवास में पहली बार दरेलवयों नरे बाड़ी लगाई । साररे पेड़ों के साथ ही बरगद रोपा । राजा नरे घी-दूध सरे सींचा मगर आबू के भानिया जोगी की सवा लाख की फौज चढ आई । दरेवी अंबा परीक्षा िरेनरे पहुंची । रानी मेंदला के समझानरे पर भी राजा नरे सर दरे दिया , इस अहद के साथ कि सवा लाख मानवी मरेंगरे तो कहीं कुल्हाड़ा चिरेगा पेड़ पर । भानिया नरे कुल्हाड़ा चलाया । पहिरे वार में दूध की धारा बही , दूसररे में पानी की धारा फूटी और तीसररे में , मानो प्िय ही आ गया , लहू की धारा नरे सारी धरती को लाल कर दिया । तब दरेवी नरे कहा- परेड बचरे तो पपृथ्वी बचरेगी , परेड कटा तो प्ाण घटेगा ।
वा्तव में दरेखें तो बरेहद सार्थक , प्रेरणादायक है गवरी का दरेखना । बडलिया हिंदवा — गवरी का मूल खरेि , अदभुत मरेि , परेड ही प्ाण हैं , परेड सरे ही जहान है । यही संदरेि है गवरी का । वाकई , प्ककृलत के प्लत ककृतज्ता के भाव का प्दर्शन और प्ककृलत की रक्षा का संकलप ही निहित है गवरी में ।
मरेवाड़ अंचल में होनरे वार्षिक लोकनपृत्य- नाट् ' गवरी ' का श्ाद्धपक्ष में समापन होता है । यहां बसरे भील-गमरेती आदिवासियों में गवरी का आयोजन अनुष्ठान की तरह किया जाता है । राखी के बाद इसका व्रत लिया जाता है । गवरी तमाम नाटकप्रेमियों और सिनरे-रंगप्रेमियों के बीच एक ऐसा नाट् अनुष्ठान है जिसके आयोजन के मूल में ' नांदी वचन ' जैसी वह भावना लवद्मान है जो नाट्िास् त् में भरत मुनि करतरे हैं और संस्ककृत के लगभग सभी नाटकों में लोक सरे ग्हण की गई है-- '' समय पर वर्षा हो , पपृथ्वी पर सुभिक्ष हो , गायें स्वस्थ हों और पयस्वनी होकर पर्याप्त दूध प्दान करें । बहु- बरेलटयां प्सन्न हों , निरोगी , चिरायु और
34 दलित आं दोलन पत्रिका vDVwcj 2021