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टूट रही है जातियों की जंजीर

मारे देश में तो ' माता भूमि पुत्ो अहं पृथव्य :' की सनातन भारती्य संस्कृति से लेकर भारती्य संविधान में भी मानव मात् के लिए हर सतर पर समता और समानता की बात की गई है , किंतु असमानताओं और विषमताओं का क्रम समाज में दशकों और शताब्दीयों से विद्यमान क्यों है ? पहले वर्ण व्यवसथा के रूप में इसे दिखा्या ग्या ततपश्ात जाति व्यवसथा के रूप में दिखा्या ग्या । हालांकि समाज के संचालन में कर्म के आधार पर जाति के निर्धारण की सकारातमक उप्योगिता और उपादे्यता पर लंबे व्याख्यान्न दिए जा सकते हैं और सैदांमतक बातें कही जा सकती हैं लेकिन व्यावहारिकता में कर्म के आधार पर जाति की जो अवधारणा अससतति में आई उसमें छोटे — बडे और ऊंच — नीम्न का भेद ्यह बताने के लिए प्या्णपत है कि जातिगत समाज व्यवसथा के अधिकांश पहलू और आ्याम नकारातमक हैं ।

वैसे भी अगर सनातन संस्कृति ' जनमना जा्यते शूद्र : कर्मणा मविज उच्यते ' की बात करती है तब कर्म के बदलाव से जाति में सित : सिाभाविक बदलाव हो जाना चाहिए । लेकिन ऐसा होता नहीं है । दलित अगर पुजारी का काम भी करने लगे तो वह ब्ाह्मण के रूप में समाज को सिीका्य्ण नहीं होता है जबकि ब्ाह्मणों के परिवार में जनम लेने वाला व्यसकत जीवन — ्यापन के लिए किसी भी का्य्ण क्ेत् से जुडने पर भी ब्ाह्मण ही बना रहता है । ऐसी समाज व्यवसथा में अगर जाति सतर पर भेदभाव का सिरूप दृष्टगत है तो इसमें आश्चर्य की क्या बात ? लेकिन इसका एक अन्य आ्याम ्यह भी है कि आज के ्युवाओं का एक बड़ी संख्या कर्म के आधार पर जाति के निर्धारण की व्यवसथा को पीढी दर पीढी ढोते हुए ऊब चुका है । ्यही कारण है कि अब बडी संख्या में दलित भी पुजारी बन रहे हैं और हर जाति के लोग हर तरह के काम में लग रहे हैं । परिणाम सिरूप जाति बंधन को तोडकर अंतरजाती्य विवाह के मामले भी अब हर गांव — मोहलले में होते हुए दिखने लगे हैं । सिाभाविक है कि जाति बंधन तोडकर जब बेटी — रोटी का रिशता
बनने लगा है तो ऊंच — नीम्न की संभावना और भेदभावपूर्ण व्यवहार में भी दिनों — दिन कमी आती दिख रही है । ्यद्यपि जाति बंधन तोडकर विवाह संबंध सथामपत करने वाले जोडे अपवाद ही माने जा रहे हैं लेकिन अचछी बात ्यह है कि उनहें समाज सिीकार कर रहा है और देश के कुछ विशेष म्सनहत क्ेत्ों की बात छोड दें तो अंतरजाती्य विवाह को लेकर समाज में हिचक और झिझक में कमी आती हुई सप्ट दिखाई पड रही है ।
ऐसे सम्य में भी अगर जाति व्यवसथा की कमजोर पड रही जंजीरों को कहीं से प्ारिा्यु और खाद — पानी देने की सबसे अधिक कोशिश की जा रही है तो वह राजनीतिक व्यवसथा ही है जो अपने लाभ हेतु समाज को जातिवादी चिंतन से ऊपर उठता हुआ देखने के लिए तै्यार नहीं है । ्यद्यपि दमक्र में पेरर्यार का आंदोलन आरंभ होने के बाद ही सवर्ण विरोधी राजनीतिक ध्ुिीकरण का प्ारंभ बहुत पहले हो गई थी लेकिन उत्तर भारत की बात करें तो अससी के दशक तक राजनीति पर जातिवाद उतना प्भावी नहीं था । सच तो ्यह है कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद नबबे के दशक से आरंभ हुई जातिवादी राजनीति बीते तीस िषषों से लगातार पुष्पत — पललमित होती रही है और जातिवादी क्ेत्रीय दलों ने जाती्य सिामभमान के नाम पर समर्थन जुटाने को ही सत्ता ही कुंजी समझ मल्या । परिणाम सिरूप राजनीति का पूरा विमर्श जामत्यों के इर्द — गिर्द सिमट कर रह ग्या और जाती्य सिामभमान के नाम पर सत्ता प्ासपत के उपरांत दलित की कोई बेटी दौलत की बेटी बन बैठी तो टूटी सा्यमकल पर चलने वाला जाति बंधन को तोडकर सैफईवादी समाजवाद का नंगा नाच कराने लगा । किसानों के मसीहा के बेटे — पोते जाट वोटों की राजनीति करने लगे और इन सबके साथ अलग — अलग जामत्यों और उपजामत्यों के भी कई छोटे — छोटे दल अससतति में आ गए जो जाति के वोटों की ठेकेदारी करके सत्ता की मलाई में अपना हिससा बंटाने लगे । ऐसे अनेकानेक दलों ने दलितों , पिछड़ों और गरीबों का सिर्फ वोट बैंक के रूप
में उप्योग मक्या और सिमहतों के साथ ही विकास की राजनीति को अवैध कमाई और धन उगाही का माध्यम बना मल्या ।
बहरहाल तीस िषषों तक जातिवाद के नाम पर विकास की अनदेखी के बाद अब जबकि आम जनता स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रही है तो उसने राजनीति में जाति की जंजीरों को तोडने की शुरूआत कर दी है । विशेषरूप से 2014 का लोकसभा चुनाव देश में ही नहीं , बसलक जातिगत राजनीति में बदलाव के नए सनदेश को लेकर आ्या । केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद प्धानमंत्ी नरेंद्र मोदी सरकार विारा िषषों से अपने वासतमिक विकास की राह देख रहे गरीब , दलित , पिछड़ा वर्ग के हितों के उद्ेश्य से ला्यी ग्यी ्योजनाओं के ईमानदारी से मक्ये गए मक्र्यान्वयन ने आम जनता में सकारातमक बदलाव लाना प्ारमभ मक्या । जाति , उपजाति और वर्ग की सोच में आने वाले बदलाव को सप्ट रूप से 2017 में उत्तर प्देश विधानसभा चुनाव और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव के परिणाम में देखा ग्या । 2017 में प्देश के चुनाव में आम जनता ने जाति , उपजाति और वर्ग की राजनीति करने वाले नेताओं को मुहतोड़ प्मतउत्तर उस सम्य मद्या , जब जातिगत हितों के नाम पर समक्र्य नेताओं को चुनाव में मुँह की खानी पड़ी थी । उसके बाद गत पांच िषषों के मध्य एक मुख्यमंत्ी के रूप में ्योगी आदित्यनाथ ने भी प्देश में विकास के नए मानक सथामपत मक्ये । भ्यमुकत एवं विकासोनमुख प्देश बनाने के लिए ईमानदारी से मक्ये गए विकास कार्यों और सरकारी ्योजनाओं का लाभ समाज के सभी वर्ग , जाति ्या धर्म के लोगों को समान रूप से मिला ।
केंद्र और राज्य की डबल इंजन की सरकार की ्योजनाओं के मक्र्यानिन से दलित , पिछड़ी और गरीब जनता को जिस तरह से लाभ मिलना प्ारमभ हुआ , वह अनुभव उनके लिए न्या और सुखद है । परिणामतः सभी जाति , उपजाति और वर्ग की जनता भाजपा के शासनकाल में जाति-उपजाति की जंजीरों को तोड़ने में जुटी हुई है । इस बार जाति बंधन तोडकर समाज के सभी िगषों के लोग भाजपा के पक् में एकजुट दिख रहे हैं ताकि बीमारू राज्य की सूची से बाहर निकल कर सबका साथ , सबका विकास और सामूहिक प्रयास के दम पर देश में सबसे तेज गति से विकास करने वाले राज्य के रूप में सामने आने के उपरांत अब दोबारा पलट कर पीछे ना देखना पडे ।
iQjojh 2022 दलित आं दोलन पत्रिका 3