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चिरायु और समृद्धशाली हचों । राज्‍य भयमुक्‍त हचों ।'' ना्टक के आयोजन के मूल में यही भा्व नाट्यशास् रि के रचयिता को अभिप्रेत रहा है । यह व्रत इसलिए है कि 40 दिन तक ग्वरी दल के सदस्‍य न हरी सब्‍जी खाते हैं न ही पां्वचों में जूते पहनते हैं । ्वे परर्वार से पूरी तरह दूर रहते हैं और किसी दे्वालय में ही श्वश्राम करते हैं । न कमाने की चिंता न ही खाने का ख्‍याल । बाजचों को जमीन पर नहीं रखा जाता । बाजा कंधे और बंद सब धंधे ।
प्ाण जाए पर परेड़ न जाए
इस दिन प्राय : जो ख्‍याल किया जाता है , ्वह ' बडशलया हिंद्वा ' का होता है । इसके मूल
में कथानक उन नौ लाख देश्वयचों का है जो पपृथ् ्वी पर हरियाली के लिए नागराजा ्वासुकी बाडी से पेड़ों को लेकर आती है । आम लाने ्वाली दे्वी अंबा कही जाती है , नीम लाने ्वाली दे्वी नीमज और पीपल लाने ्वाली पीपलाज । देश्वयचों के नामकरण का स्ाेत भी ग्वरी की प्रस्‍तुति में समाहित होता है । देश्वयां उन पेड़ों का रोपण करती है किंतु ्वे राजा जैसल से यह आश् ्वासन चाहती है कि पेड की हर हाल में सुरक्ा होगी । राजा ्वचन देता है कश उसका सिर क्ट जाए , मगर कोई पेड नहीं क्टेगा । दे्वी उसके ्वचन की परीक्ा लेने के लिए ्वरजू कांजरी बनकर आती है । दूसरी ओर हरियाली को उजाडने के लिए आबू के पहाड से भानिया जोगी अपने चेलचों
के साथ आता है और राजा को बरगला कर बरगद पर कुल्‍हाडा चला देता है । पहले ्वार में दूध की धारा फू्टती है , दूसरे ्वार में पानी और तीसरे में रक्‍त की धारा फू्टकर सपृलष्ट में हाहाकार मचा देती है । यह ख्‍याल ्वस्‍तुत : पया्थ्वरण की सुरक्ा का पाठ पढाने ्वाला प्राचीनतम ख्‍याल है कि हर कीमत पर पेड बचने चाहिए । ब्ह्म्वै्वत्थपुराण के प्रकृतिखंड में , पद्मपुराण के सपृलष्टखंड , कृषि पराशर , काश्‍यपीय कृषि पधिशत आदि में इस प्रकार की मान्‍यताओं को संजोया गया है मगर उनका ्वास्तविक व्यावहारिक स्वरूप लोक की ऐसी ही मान्‍यताओं में देखा जा सकता है ।
घड़ावण और वलावण यानी तैयारी और विसर्जन
जिस किसी भी गां्व में ग्वरी नर्तन का व्रत लिया गया , ्वहां इन दिनचों समापन के दो-दो उत्‍स्व मनाए जा रहे हैं । घड़ावण और ्वला्वण अर्थात् तैयारी और श्वसर्जन । घडा्वण के दिन खा्ट पर काली खोल चढाकर हाथी बनाया जाता है और इंद्र की स्वारी निकाली जाती है । श्वसर्जन के लिए गज्वाहिनी पा्व्थती ' गौरजा माता ' की मपृण्‍मयी मूर्ति बनाई जाती है और उसको सजा- धजाकर गां्व में स्वारी निकाली जाती है । पूरे रास्‍ते पर ग्वरी के सभी मांजी पारि - बूडियां , भोपा , दोनचों राइयां , कु्टकुश्टया आदि खेलचों को अंजाम देते चलते हैं और थाली के साथ मांदल ( मर्दल , पखा्वज ) बजते हैं : दींग-बिदिंग , दींग-बिदिंग । केल्वाडा-कुंभलगढ के पास लस्त हमीर की पाल जलाशय पर भी श्वसर्जन बहुत धूमधाम से होता है । अरा्वली की पहाडि़यचों में बसे भीलचों के ्टापरचों से ही नहीं , आसपास के गां्वचों से भी भीड उमड पडती है । बहुत उल्‍लासपूर्ण ्वाता्वरण में ग्वरी के व्रत का समापन होता है । कलाकारचों के लिए रिश्‍तेदारचों द्ारा पहना्वे-पोशाक आदि लाये जाते हैं । पहिरा्वनी होती है और मान-मनुहार के दौर चलते हैं । श्वसर्जन के बाद चालीस दिनचों तक लगातार थिरकने ्वाले पां्व अपने घर की ओर लौ्ट जाते हैं । �
iQjojh 2023 41